‘फिर से चिपको आंदोलन की ज़रूरत’

पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश का bbc hindi में छपा लेख

केंद्रीय ग्रामीण विकासमंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि देश में जिस रफ़्तार से जंगल काटे जा रहे हैं उसे देखते हुए कई राज्यों में एक बार फिर चिपको आंदोलन शुरू करने की ज़रूरत है.किसी केंद्रीय मंत्री की ओर से पर्यावरण बचाने के लिए जनांदोलन का आह्वान किया जाना अपने आप में महत्वपूर्ण है.पर्यावरण मंत्रालय से हटाए जाने के बाद जयराम रमेश ने सार्वजनिक मंच से स्वीकार किया है कि अवैध खनन एक बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है और इसके लिए दबाव डालने वालों में हर राजनीतिक पार्टी के लोग शामिल हैं.उन्होंने कहा, “ग़ैरक़ानूनी खनन देश भर में बहुत बड़ी समस्या बन गई है. मैं बता नहीं सकता हूँ कि कहाँ-कहाँ से दबाव आते हैं. इसका (दबाव का) कोई राजनीतिक रंग नहीं है. सब शामिल हैं.”रमेश ने कहा, “आज जिस तरह जंगल काटे जा रहे हैं, उसे देखते हुए उत्तराखंड ही नहीं कई राज्यों में चिपको आंदोलन की ज़रूरत है.”

दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में प्रसिद्ध पर्यावरणविद और चिपको आंदोलन के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट की पुस्तक ‘पर्वत पर्वत, बस्ती बस्ती’ के लोकार्पण के मौक़े पर जयराम रमेश पर्यावरण के विनाश ओर उसके लिए ज़िम्मेदार लोगों पर खुल कर बोले.

कड़ा रुख़

जयराम रमेश को हाल ही में हुए मंत्रिमंडल फेरबदल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पर्यावरण मंत्री के पद से हटा कर ग्रामीण विकास मंत्रालय का ज़िम्मा सौंप दिया था.

पर्यावरण मंत्री के तौर पर जयराम रमेश के कई फ़ैसलों पर विवाद हुआ था और कॉरपोरेट लॉबी को उनके ये फ़ैसले रास नहीं आए थे.उन्होंने उड़ीसा की पोस्को परियोजना से लेकर नियमगिरि पर्वत में वेदांता कंपनी को बॉक्साइट खनन की अनुमति देने के मामले में सख़्त रुख़ अपनाया था.महाराष्ट्र में लवासा परियोजना ओर आदर्श सोसाइटी के मुद्दे पर भी उन्होंने कड़ा रुख़ अपनाया था.तभी यह मान जाने लगा था कि मनमोहन मंत्रिमंडल में पर्यावरण मंत्री के तौर पर जयराम रमेश के दिन गिने-चुने ही बचे हैं.पुस्तक लोकार्पण में देर से पहुँचने का कारण बताते हुए जयराम रमेश ने कहा कि देर इसलिए हो गई क्योंकि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक का फ़ोन आ गया था.जयराम रमेश ने कहा, “निशंक बोले जाते जाते आप यह क्या बवाल कर गए हैं? आपने गोमुख से उत्तरकाशी तक के इलाके को इको-सेंसिटिव (पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील) घोषित कर दिया है. यह ख़तरनाक है. इससे तो विकास का काम रुक जाएगा. इसलिए कांग्रेस ओर भाजपा ने मिलकर प्रस्ताव किया है कि हम यह होने नहीं देंगे.”

उत्तराखंड में गंगा नदी के उदगम गौमुख से उत्तरकाशी तक की स्थिति को देखते हुए जयराम रमेश ने पर्यावरण मंत्री के तौर पर इस क्षेत्र को संवेदनशील घोषित किए जाने की अधिसूचना जारी कर दी थी. इसका अर्थ यह हुआ की इस इलाक़े में अंधाधुंध निर्माण कार्य नहीं हो सकता.

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को इसीलिए रमेश से नाराज़गी थी.

जयराम रमेश ने चंडी प्रसाद भट्ट, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, शेखर पाठक ओर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पुष्पेश पंत की मौजूदगी में श्रोताओं से भरे हाल में कहा, “उत्तराखंड में ऐसी कई जल विद्युत परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जिन्हें पर्यावरण के लिहाज से अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी.”

आंदोलन

रमेश ने कहा कि किसी भी परियोजना में कभी नदी की अविरल धारा को नहीं भूलना चाहिए. उन्होंने कहा, “सिर्फ उत्तराखंड में ही 70 जल विद्युत परियोजनाएं हैं, जिनके बारे में हमें यह नहीं मालूम कि इनका पर्यावरण पर क्या असर होगा.”

जयराम रमेश ने कहा, “हम नदियों में पानी देखना चाहते हैं, सुरंगें नहीं. एक समय आएगा जब उत्तराखंड में नदियाँ नहीं सिर्फ़ टनल ही दिखाई देंगी.”

सभा में चंडी प्रसाद भट्ट ने चिपको आंदोलन के बारे में वहाँ मौजूद लोगों को बताया कि इस आंदोलन के केंद्र में आदमी था.

उनकी किताब पर्वत पर्वत, बस्ती बस्ती दरअसल उनके यात्रा वृत्तांतों का संकलन है, जिसके ज़रिए उन्होंने कश्मीर से केरल और अरुणाचल से गोदावरी और पश्चिमी घाट तक जल, जंगल ओर ज़मीन की अपनी समझ का दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है.

सम्मेलन में इतिहासकार ओर पर्यावरणविद शेखर पाठक ने अपने छात्र जीवन को याद किया, जब उत्तराखंड में चिपको आंदोलन से उनका जुड़ाव बना.

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने चंडी प्रसाद भट्ट को हिमालय के पर्यावरण का ऐसा जानकार बताया, जो पर्यावरण के अर्थशास्त्रियों को हमेशा ग़लत साबित करते रहे हैं.

 http://www.bbc.co.uk/hindi/mobile/india/2011/07/110719_jairam_pressure_pp.shtml

ग्रीनपीस-

ग्रीनपीस एक अंतर्रायष्ट्रीय संगठन है,जिसकी प्राथमिकताएँ है वैश्विक पयर्यावरण काे लाकर जागरूकता एवं प्रचार अभियान। भारत में भी यह संस्था कई वर्षाें से पर्यावरण काे नुकसान पंहुचाने वाली संस्थाआें व लाेगाें के खिलाफ अभियान चला रही है। http://www.greenpeace.org/india/hi/

चिपको आंदोलन

chipko

चिपको आंदोलन मूलत: उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा 1970 के दशक में आरम्भ किया गया आंदोलन है। इसमें लोगों ने पेड़ों केा गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट न सके। यह आलिंगन दर असल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे “चिपको ” की संज्ञा दी गई।
 आंदोलन की पृष्ठभूमि

चिपको आंदोलन के पीछे एक पारिस्थितिक और आर्थिक पृष्ठभूमि है। जिन अलकनन्दा वाली भूमि में यह आंदोलन अपजा वह 1970 में आई भयंकर बाढ़ का अनुभव कर चुका था। इस बाढ़ से 400 कि०मी० दूर तक का इलाका ध्वस्त हो गया तथा पांच बढ़े पुल, हजारों मवेशी, लाखों रूपये की लकडी व ईंधन बहकर नष्ट हो गयी। बाढ के पानी केसाथ बही गाद इतनी अधिक थी कि उसने 350 कि०मी० लम्बी ऊपरी गंगा नहर के 10 कि०मी० तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया जिससे 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गर्ई थी और 48 मेगावाट बिजली का उट्टपादन ठप हो गया था।3 अलकनदा की इस त्रासदी ने ग्रामवासियों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी थी और उन्हें पता था कि लोगों के जीवन में वनों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। चिपको आंदोलन को ब्रिटिशकालीन वन अधिनियम के दुष् प्रावधानों से जोड कर भी देखा जा सकता है जिनके तहत पहाड़ी समुदाय को उनकी दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वनों के सामुदायिक उपयोग से वंचित कर दिया गया था।

आंदोलन की शुरूआत

स्वतंत्रता भारत के वन-नियम कानूनों ने भी औपनिवेशिक परम्परा का ही निर्वाह किया है। वनों के नजदीक रहने वाले लोगों को वन-सम्पदा के माध्यम से सम्मानजनक रोजगार देने के उद्ïदेश्य से कुछ पहाड़ी नौजवानों ने 1962 में चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ बनाया था। उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने संस्था के काष्ठ-कला केंद्र को सन् 1972-73 के लिए अंगु  के पेड़ देने से इन्कार कर दिया था। पहले ये पेड़ नजदीक रहने वाले ग्रामीणों को मिला करते थे। गांव वाले इस हल्की लेकिन बेहद मजबूत लकडी से अपनी जरूरत के मुताबिक खेती-बाड़ी के औजार बनाते थे। गांवों के लिए यह लकड़ी बहुत जरूरी थी। पहाड़ी खेती में बैैल का जुआ सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता रहा है, पहाड़ में ठण्डे मौसम और कठोर पथरीली जमीन में अंग के गूण सबसे खरे उतरते हैं। इसके हल्केपन के कारण बैल थकता नहीं। यह लकड़ी मौसम के मुताबिक न तो ठण्डी होती है, न गरम, इसलिए कभी फटती नहीं है और अपनी मजबूती के कारण बरसों तक टिकी रहती है।
इसी बीच पता चला कि वन विभाग ने खेल-कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी का गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मण्डल नाम के वन से अंगू के पेड काटने की इजाजत दे दी है। वनों के ठीक बगल में बसे गांव वाले जिन पेडों को छू तक नहीं सकते थे, अब उन पेडों को दूर इलाहाबाद की एक कम्पनी को काटकर ले जाने की इजाजत दे दी गई। अंगू से टेनिस, बैडमिंटन जैसे खेलों का सामान मैदानी कम्पनियों में बनाया जाये-इससे गांव के लोगों या दशौली ग्राम स्वराज्य संघ को कोई एतराज नही था। वे तो केवल इतना ही चाहते थे कि पहले खेत की जरूरतें पूरी की जाये और फिर खेल की। इस जायज मांग के साथ इनकी एक छोटी-सी मांग और भी थी। वनवासियों को वन संपदा से किसी-न-किसी किस्म का रोजगार जरूर मिलना चाहिए ताकि वनों की सुरक्षा के प्रति उनका प्रेम बना रह सके।

आंदोलन का क्षेत्र

चिपको आंदोलन का मूल केंद्र रेनी गांव (जिला चमोली) था जो भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे। इसकी खबर मिलते ही चंडी प्रसाद भट्ट के नेत्तट्टव में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड गिराये गये, तो हमारा अस्तिट्टव खतरे में पड जायेगा। ये पेड न सिर्फ हमारी चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरते पूरी करते हैें, बल्कि मिट्ïटी का क्षरण भी रोकते है।
इस सभा के बाद 15 मार्च को गांव वालों ने रेनी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को विद्यार्थियों ने भी निकाला। जब आंदोलन जोर पकडने लगा ठीक तभी सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया था, वे अपना मुआवजा ले जाएं। गांव के पुरूष मुआवजा लेने चमोली चले गए। दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय, गोपेश्वर बुला लिया। इस मौके का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में घुस गये। अब गांव में सिर्फ महिलायें ही बची थीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बिना जान की परवाह किये 27 औरतों ने श्रीमती गौरादेवी के नेतृट्टव में चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। इस प्रकार 26 मार्च, 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई।
चिपको आंदोलन की मांगे

चिपको आन्दोलन की मांगें प्रारम्भ में आर्थिक थीं, जैसे वनों और वनवासियों का शोषण करने वाली दोहन की ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर वन श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण, नया वन बन्दोबस्त और स्थानीय छोटे उद्योगों के लिए रियायती कीमत पर कक्वचे माल की आपूर्ति। धीरे-धीरे चिपको आन्दोलन परम्परागत अल्पजीवी विनाशकारी अर्थव्यवस्था के खिलाफ स्थायी अर्थव्यवस्था-इकॉलाजी का एक सशक्त जनआंदोलन बन गया। अब आन्दोलन की मुख्य मांग थी- हिमालय के वनों की मुख्य उपज राष्ट्र के लिए जल है, और कार्य मिट्टी बनाना, सुधारना और उसे टिकाए रखना है। इसलिए इस समय खड़े हरे पेड़ों की कटाई उस समय (10 से 25 वर्ष) तक स्थगित रखी जानी चाहिए जब तक राष्ट्रीय वन नीति के घोषित उददेश्यों के अनुसार हिमालय में कम से कम 60 प्रतिशत क्षेत्र पेड़ों से ढक न जाए। मृदा और जल संरक्षण करने वाले इस प्रकार के पेड़ों का युद्ध स्तर पर रोपण किया जाना चाहिए जिनसे लोग भोजन-वस्त आदि की अनिवार्य आवश्यकतों में स्वावलम्बी हो सकें।

रेनी में हुए चिपको की खबर पाकर अगले दिन से आसपास के एक दर्जन से अधिक गांवों के स्9ाी-पुरुष बड़ी संख्या में वहां पहुंचने लगे। अब यह एक जन-आंदोलन बन गया। बारी-बारी से एक-एक गांव पेड़ों की चौकसी करने लगा। दूर-दराज के गांवो में चिपको का संदेश पहुँचाने के लिए विभिन्न पद्घतियों का सहारा लिया गया जिनमे प्रमुख थे पदयात्राएं, लोकगीत तथा कहानियाँ आदि। लोकगायकों ने उत्तेजित करने वाले गीत गाये। उन्होने वनों की कटाई और वन आधारित उद्योगों से रोजगार के अल्पजीवी अर्थव्यवस्था के नारे–
क्या हैं जंगल के उपकार, लीसा, लकडी और व्यापार
को चुनौति देते हुए इससे बिल्कुल भिन्न स्थाई
अर्थ-व्यवस्था के इस मंत्र का घोष किया–
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।”

गोपेश्वर में वन की कटाई के सफलता-पूर्वक रूकते ही आंदोलन ने जोर पकड लिया। सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृट्टव में चमोली जिले में एक पदयात्रा का आयोजन हुआ। आंदोलन तेजी से पहले उत्तरकाशी और फिर पूरे पहाडी क्षेत्र में फैल गया।

Sunderlal-Bahuguna-Zohra-Ali-Yavar-Jung

आंदोलन की सफलता

इन जागृत पर्वतवासियों के गहरे दर्द ने पत्रकारों, वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों के दिलोदिमाग पर भी असर किया। 9 मई, 1974 को उत्तर प्रदेश सरकार ने चिपको आंदोलन की मांगों पर विचार के लिए एक उच्च स्तरीय समिति के गठन की घोषणा की। दिल्ली विश्वविधालय के वनस्पति-विज्ञानी श्री वीरेन्द्र कुमार इसके अध्यक्ष थे। गहरी छानबीन के बाद समिति ने पाया कि गांव वालों ओर चिपको आंदोलन कारियों की मांगे सही हैं। अक्टूबर, 1976 में उसने यह सिफारिश भी कि 1,200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में व्यावसायिक वन-कटाई पर 10 वर्ष के लिए रोक लगा दी जाए। साथ ही समिति ने यह सुझाव भी दिया कि इस क्षेत्र के महट्टवपूर्ण हिस्सों में वनरोपन का कार्य युद्घस्तर पर शुरू किया जाए। उत्तर प्रदेश सरकार ने इन सुझावों को स्वीकार कर लिया। इस रोक के लागु होने के कारण 13,371 हेक्टेयर की वन कटाई योजना वापस ले ली गई। चिपको आदोलन की यह बहुत बड़ी विजय थी।
चिपको आंदोलन कई मामलों में सफल रहा। यह उत्तर प्रदेश में 1000 मीटर से अधिक की ऊँचाई पर पेड़-पौधों की कटाई, पश्चिमी घाट और विंध्य में जंगलों की सफाई (क्लियर फेंलिंग) पर प्रतिबंध लगवाने में सफल रहा। साथ ही, एक राष्ट्रीय वन नीति हेतु दबाव बनाने में सफल रहा है, जो लोगों की आवश्यकताओं एवं देश के पारितंत्र के विकास के प्रति अधिक संवेदनशील होगी। रामचंद्र गुहा के शब्दों में चिपको प्राकृतिक संसाधनों से संबद्घ संघषों की व्यापकता का प्रतिनिधिट्टव करता है। इसने एक राष्ट्रीय विवाद का हल प्रदान किया। विवाद यह था कि हिमालय के वनों की सर्वाधिक सुरक्षा किसके हाथ होगी–स्थानीय समुदाय, राज्य सरकार या निजी पूंजीपतियों के हाथ। मसला यह भी था कि कौन से पेड़-पौधे लगाए जाएं-शंकु वृक्ष, चौड़े पत्ते वाले पेड या विदेशी पेड और फिर सवाल उठा कि वनों के असली उट्टपाद क्या हैं- उद्योगों के लिए लकड़ी, गांव के लोगों के लिए जैव संपदा, या पूरे समुदाय के लिए आवश्यक मिट्ïटी, पानी और स्वक्वछ हवा। अत: पूरे देश के लिए वन्य नीति निर्धारण की दिशा में इस क्षेत्रीय विवाद ने एक राष्ट्रीय  स्वरूप ले लिया।
चिपको ने विकास के आधुनिक मॉडल के समक्ष एक विकल्प पेश किया है। यह आम जनता की पहल का परिणा था। यह आंदोलन भी गांधीवादी संघर्ष का ही एक रूप था क्योंकि इसमे भी अन्यायपूर्ण, दमनकारी शासन व्यवस्था का निरोध किया गया जो पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उसका शोषण कर रहा था। इस आंदोलन को वास्तविक नेतृट्टव भी गांधीवांदी कार्यकर्ताओंं मुख्यत: चंडीप्रसाद भट्ट और सुंदर लाल बहुगुढा से मिला जिनके द्वारा प्रयोग की गई तकनीक भी गांधी जी के सट्टयाग्रह से प्रे्रित थी। वंदना शिवा और जयंत वंदोपाध्याय के शब्दों में “ऐतिहासिक दार्शनिक और संगठनाट्टमक रूप से चिपको आंदोलन पारंपरिक गांधीवादी सट्टयाग्रहों का विस्तृत स्वरूप था”

चिपको आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

चिपको आंदोलन को प्राय: एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके अधिकांश कार्यकर्ताओं में महिलाएं ही थीं तथा साथ ही यह आंदोलन नारीवादी गुणों पर आधारित था। 26 मार्च, 1974 को जब ठेकेदार रेणी गांव में पेड़ काटने आये, उस समय पुरुष घरों पर नहीं थे। गौरा देवी के नेतृट्टव में महिलाओं ने कुल्हाड़ी लेकर आये ठेकेदारों को यह कह कर जंगल से भगा दिया कि यह जंगल हमारा मायका है। हम इसे कटने नहीं देंगी। मायका महिलाओं के लिए वह सुखद स्थान है जहाँ संकट के समय उन्हें आश्रय मिलता है। वास्तव में पहाड़ी महिलाओं और जंगलों का अटूट संबंध है। पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी के बहकर चले जाने से रोजगार के लिए पुरुषों के पलायन के फलस्वरूप गृहस्थी का सारा भार महिलाओं पर ही पड़ता है। पशुओं के लिए घास, चारा, रसोई के लिए ईंधन और पानी का प्रबन्ध करना खेती के अलावा उनका मुख्य कार्य है। इनका वनों से सीधा सम्बन्ध है। वनों की व्यापारिक दोहन की नीति ने घास-चारा देने वाले चौड़ी पत्तियों के पेड़ों को समाप्त कर सर्वत्र चीड़, देवदार के शंकुधारी धरती को सूखा बना देने वाले पेड़ों का विस्तार किया है। मोटर-सडक़ों के विस्तार से होने वाले पेड़ों के कटाव के कारण रसोई के लिए ईंधन का आभाव होता है। इन सबका भार महिलाओं पर ही पड़ता है। अत: इस विनाशलीला को रोकने की चिंता वनों से प्रट्टयक्ष जुड़ी महिलाओं के अलावा और कौन कर सकता है। वे जानती हैं कि मिट्ïटी के बहकर जाने से तथा भूमि के अनुपजाऊ होने से पुरुषों को रोजगार के लिए शहरों में जाना पड़ता है।  मिटटी रुकेगी और बनेगी तो खेती का आधार मजबूत होगा। पुरुष घर पर टिकेंगे। इसका एक मात्र उपाय है – हरे पेड़ों की रक्षा करना क्योंकि पेड़ मिटटी को बनाने और पानी देने का कारखाना हैं।
रेणी के पश्चात् (चिपको के ही क्रम में) 1 फरवरी, 1978 को अदवाणी गांव के जंगलों में सशस्त्र पुलिस के 50 जवानों की एक टुकड़ी वनाधिकारियों और ठेकेदारों द्वारा भाड़े के कुल्हाड़ी वालों के संरक्षण केे लिए पहुँची। वहाँ स्त्रियॉ यह कहते हुए पेड़ों पर चिपक गयीं, ‘‘पेड़ नहीं, हम कटेंगी’’। इस अहिंसक प्रतिरोध का किसी के पास उत्तर नहीं था। इन्हीं महिलाओं ने पुन: सशस्त्र पुलिस के कड़े पहरे में 9 फरवरी, 1978 को नरेंद्र नगर में होने वाली वनों की नीलामी का विरोध किया। वे गिरफ्तार कर जेल में बन्द कर दी गईं।
25 दिसम्बर, 1978 को मालगाड्डी क्षेत्र में लगभग 2500 पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन आरंभ हुआ जिसमें हजारों महिलाओं ने भाग लेकर पेड़ कटवाने के सभी प्रयासों को विफल कर दिया। इस जंगल में 9 जनवरी, 1978 को सुन्दरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा। परिणामस्वरूप सरकार ने तीन स्थानों पर वनों की कटाई तट्टकाल रोक दी और हिमालय के वनों को संरक्षित वन घोषित करने के प्रश्न पर उन्हें बातचीत करने का न्यौता दिया। इस सम्बन्ध में निर्णय होने तक गढ़वाल और कुमायुँ मण्डलों में हरे पेड़ों की नीलामी, कटाई और छपान बंद करने की घोषणा कर दी गई।
चिपको आंदोलन के दौरान महिलाओं ने वनों के प्रबंधन में अपनी भागीदारी की मांग भी की। उनका तर्क था कि वह औरत ही है जो ईधन, चारे, पानी आदि को एकत्रित करती हैं। उसके लिए जंगल का प्रश्न उसकी जीवन-मृट्टयु का प्रश्न है। अत: वनों से संबंधित किसी भी निणर्य में उनकी राय को शामिल करनी चाहिए। चिपको आंदोलन ने वंदना शिवा को विकास के एक नये सिद्धात – ‘पर्यावरण नारीवाद’ के लिए प्रेरणा दी, जिसमें पर्यावरण तथा नारी के बीच अटूट संबंधों को दशार्या गया है।
इस प्रकार हम देख सकते हैें कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ आवाज उठाने में महिलाएं कितनी सक्रिय रहीं हैं। चिपको ने उन पहाड़ी महिलाओं को जो हमेशा घर की चार दीवारी में ही कैद रहती थीं, बाहर निकल कर लोगों के बीच प्रतिरोध करने तथा अपने आपको अभिव्यक्त करने का मौका दिया। इसने यह भी दशार्या कि किस प्रकार महिलाएं पेड़-पौधे से संबंध रखती हैं और पर्यावरण के विनाश से कैसे उनकी तकलीफें बढ़ जाती हैं। अत: चिपको पर्यावरणीय आंदोलन ही नहीं है, बल्कि पहाड़ी महिलाओं के दुख-दर्द उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति का भी आंदोलन है।

गॉधी और पर्यावरण आंदोलन

प्रसिद्ध इतिहासकार और गॉधीवादी रामचंद्र गुहा का प्रतिलिपि(व्दिभाषिक साहित्यिक पत्रिका) में लेख

पुणे के साथ आलोचनात्मक एवं सामाजिक सुधार की एक परम्परा जुड़ी हुई है। एक ऐसी अद्वितीय परम्परा जो शायद ही किसी भारतीय शहर के साथ जुड़ी हुई हो। यद्यपि मैं एक दशक से अधिक समय के बाद पुणे वापस आया हूँ, फिर भी इस बीच के समय में मेरी जिन्दगी के हर क्षण ने इस परम्परा को महसूस किया है। पिछले १० वर्षों से मेरा घनिष्ठ बौद्धिक रिश्ता नागरिक चेतना से जुड़े पर्यावरणवादी माधव गाड़गिल के साथ रहा है। यह छवि इनके वृहद् अध्ययन से मेल खाती है। माधव ने १९८२ के परिसर व्याख्यान का उद्घाटन संबोधन दिया था। वह भारतीय पुनर्जागरण के अद्वितीय व्यक्तित्व डी.आर.गाडगिल के पुत्र है, जिन्होंने अपनी जिन्दगी का अधिकांश समय इसी शहर में बिताया। वरिष्ठ गाडगिल की पीढ़ी के दो विद्वान बुद्धिजीवियों में डी.डी. कौसाम्बी एवं इरावर्ती कर्वे थे, जिन्हें उनके कार्यों और सम्मान के लिए मैंने और माधव ने हमारा पारिस्थितिकीय इतिहासद फिशर लैण्ड समर्पित किया है। वेरियर एल्विन वह तीसरे सज्जन थे, जिन्हें यह पुस्तक समर्पित थी। एल्विन पर मेरा आजकल का शोध कार्य आधारित है। एल्विन के भी पुणे के साथ घनिष्ठ संबंध थे। वे यहाँ भारत के अपने प्रारंभिक वर्षों के दौरान थे। उनका बाद का काम आदिवासियों के बीच था जो प्रमुख रूप से भारत सेवक संघ के ए.वी.ठक्कर से प्रभावित था।

हमारे मेजबानों ने इस अवसर पर पूना की इस महान परम्परा का ताजा उदाहरण प्रस्तुत किया है। परिसर जैसे समूह अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन को परिपक्व बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसलिए मैं यहाँ आकर १९८३ के लिए परिसर व्याख्यान देने में सम्मानित महसूस करता हूँ।

व्याख्यान इस प्रश्न का उतर पूछता और खोजता है कि –

क्या महात्मा गाँधी प्रारम्भिक पर्यावरणवादी थे?

गाँधी का जीवन व कार्य भारत में समकालीन पर्यावरणीय आंदोलन पर विशेष प्रभाव रखता है। वास्तव में यह आंदोलन अप्रैल, १९७३ को चिपको आंदोलन के साथ शुरू हुआ। चिपको के शुरूआती छपे लेखों में एक प्रतिबद्ध पत्रकार ने घोषित किया कि गाँधी के भूत ने हिमालय के वृक्षों को बचाया है। तब से महात्मा गाँधी पर्यावरणीय आंदोलन के संरक्षक संत की भांति माने जाते हैं, कभी कभी नहीं भी। चिपको आंदोलन से नर्मदा बचाओ आंदोलन तक पर्यावरणीय कार्यकर्ता अहिंसक प्रतिरोध की गाँधीवादी तकनीकों पर बहुत अधिक निर्भर हैं तथा भारी औद्योगिकरण के खिलाफ गाँधी के विचारों से इन्होंने काफी कुछ लिया है। पुनः आन्दोलन के कुछ प्रसिद्ध चेहरे उदाहरण के लिए – चण्डी प्रसाद भट्ट, सुंदरलाल बहुगुणा, बाबा आम्टे और मेधा पाटकर बारम्बार गाँधी के प्रति ऋण को रेखांकित करते हैं।

कोई भी व्यक्ति इसके अलावा अन्य प्रभावों की उपेक्षा नहीं कर सकता है। भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन की विशाल छत के नीचे अनेक समूह हैं जो गाँधी के साथ छोटा-सा जुड़ाव रखते हैं। मार्क्सवाद की पृष्ठभूमि से उभर कर आए केरल शास्त्र साहित्य परिषद जैसे संगठन के उदाहरण के बारे में सोचिए, धर्मविज्ञानी मुक्ति तथा आत्मनिर्भरता या स्वयं-सहायता की परम्पराओं से अलग-अलग प्रभावित है। फिर भी यह कहना शायद ही उचित प्रतीत होता है कि पर्यावरणीय आंदोलन पर सर्वाधिक एकमात्र महत्वपूर्ण प्रभाव गाँधी के जीवन और व्यवहार का है।

मुझे आज के दो असाधारण गाँधीवादी पर्यावरणविदों – चण्डी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा के कार्य का अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ है। भट्ट और बहुगुणा के बारे में मेरी व्यक्तिगत जानकारी बहुत कम है लेकिन मैं उनके जीवन और कार्य के बारे में कुछ अधिक जानकारी चिपको आंदोलन पर अपने शोध के दौरान प्राप्त कर सका, जिस आंदोलन से यह लोग जुडे़ हुए थे। जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक द अनव्हाइट वुड में तर्क दिया है कि चिपको आंदोलन अपने आप में एक गाँधीवादी आंदोलन है – यह सोचना भ्रामक है। इस आंदोलन की जड़ें किसानों के अपने वन अधिकारों की रक्षा हेतु किए गए विरोधों में मजबूती से जमी हुई है। तथापि आंदोलन के प्रसिद्ध नेताओं भट्ट और बहुगुणा ने स्वयं गाँधीवादी रचनात्मक कार्यों की श्रेष्ठ परम्परा का उदाहरण प्रस्तुत किया हे।

चिपको के शहरी समर्थक प्रायः चण्डी प्रसाद भट्ट या सुंदरलाल बहुगुणा, किसी के भी समर्थक रूप में पहचाने जा सकते हैं लेकिन वास्तव में इन दोनों व्यक्तियों की प्रसिद्धि के अन्य बहुत कारण है। भट्ट और उनका संगठन दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल ने चिपको के उद्भव में शुरूआती भूमिका निभायी थी। इसकी तकनीकें स्वयं भट्ट ने मंडल के ग्रामवासियों को बतलायी थी। व्यावसायिक फैक्ट्रियों के विरूद्ध प्रदर्शन को समन्वित करने से लेकर डीजीएसएम ने पर्यावरणीय पुनरूद्धार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इसने अलकनंदा के गाँवों में वृक्षारोपण कार्य के लिए महिलाओं को संगठित करने में पहल की। जहाँ इसके वृक्षारोपण एवं संरक्षण कार्यक्रमों ने वन विभाग की खर्चीली योजनाओं की तुलना में ज्यादा बेहतरी से कार्य किया है। चूंकि चण्डी प्रसाद भट्ट की गिनती चिपको के अगुआ के रूप में होनी चाहिए अगर हम उपाधि किसी एक व्यक्ति को देना चाहे सुंदरलाल बहुगुणा के सामाजिक कार्यों का भी इतिहास है और यह इतिहास चिपको से भी पीछे जाता है।

वह और उनकी पत्नी विमला सरला देवी कैथरीन मैरी हैलमैन द्वारा पहाड़ियों में प्रशिक्षित किए गए पहले सर्वोदय कार्यकर्ताओं के समूह में से थे। सरला देवी महात्मा गाँधी की प्रसिद्ध शिष्या थी जो १९४० के दशक में कुमायूं की ओर आ गयी। बहुगुणा ने उनके घर भागीरथी घटी में १९७७ और १९८० के मध्य अनेक महत्वपूर्ण चिपको आंदोलन के विरोध प्रदर्शन आयोजित किए। जब से भट्ट और उनके सहकर्मी अपना ध्यान हिमालय के पारिस्थितिकीय पुनरूद्धार पर केन्द्रित कर चुके हैं, बहुगुणा भी चिपको आंदोलन के संदेश को पहाड़ियों से आगे ले जाने का निश्चय कर चुके हैं। एक अथक पदयात्री के रूप वह अपनी से आधी उम्र के लोगों के जोश के साथ भारत और विदेशों में व्यापक भ्रमण कर चुके हैं। वह एक आकर्षक वक्ता भी है, अपनी इस क्षमता के सहारे वह शहरी प्रबुद्ध वर्ग को अनियंत्रित भौतिकवाद के खतरों के प्रति सचेत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं ।ये दोनों चिपको आंदोलन के नेता मेरी पुस्तक में हर तरह से आज भारत के जागृत लोगों में से है। गाँधी का उदाहरण दोनों व्यक्तियों के जीवन को प्रणवायु देता है लकिेन मैं सोचता हूँ कि हर एक ने गाँधी से कुछ अलग ग्रहण किया है। बहुगुणा औद्योगिक समाज की गंभीर आलोचना करते समय गाँधी की हिन्द स्वराज के अनुसरण के करीब होते हैं। इस छोटी सी पुस्तक हिन्द स्वराज में आधुनिक सभ्यता की आलोचना की गयी है। जैसा कि बहुगुणा के भ्रमण दौरों एवं व्याख्यानों से अभिव्यक्त होता है कि बहुगुणा व्यक्तियों की चेतना को एक सारमय अपील कर रहे हैं, उन्हें उपभोक्तावाद के सशपथ त्याग एवं सादे जीवन की ओर लौटने के लिए तर्क देते हैं। इनके मुकाबले भट्ट और उनका समूह केन्द्रीकृत विकास के स्थानापन्न टिकाउ विकास को व्यवहार रूप में लाने के लिए कार्य कर रहे हैं। इस दृष्टिकोण से वह गाँधी के साबरमती एवं वर्धा आश्रमों की श्रेणी की ओर उन्मुख दिखाई देते हैं। चण्डी प्रसाद के कार्यों ने महात्मा गाँधी के आदर्श ग्राम स्वराज्य या ग्राम निर्भरता को एक नया पारिस्थितिकीय अर्थ देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

मैं चण्डी प्रसाद और सुंदरलाल के बारे में केवल इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरा चिपको आंदोलन का अध्ययन मुझे इनके कार्यों के ज्यादा करीब लाया। आप में से कोई भी जो नर्मदा बचाओं आंदोलन से जुड़ा रह चुका है, वह इन नेताओं के जीवन और कार्यों में गाँधी की भावना का कुछ हिस्सा अवश्य देख चुका होगा। चिपको और नर्मदा आंदोलन विशिष्ट है लेकिन किसी भी तरह गाँधी की जीवंत धरोहर के अलग उदाहरण नहीं है क्योंकि यह भावना समकालीन पर्यावरण आंदोलन में निहित है।

फिर भी आज के पर्यावरणवादी यह दावा नहीं करते हैं कि वे गाँधी के उदाहरण का अनुसरण कर रहे हैं वे तर्क देते हैं  कि महात्मा ने खुदी ही आधुनिक औद्योगिक समाज के पारिस्थितकीय संकट का अनुमान लगा लिया था। यह प्रश्न  कि क्या गाँधी प्रारंभिक पर्यावरणवादी थे, इसका उतर गाँधी के अनुयायी प्रायः सकारात्मक रूप से देते है लेकिन उनके पास समर्थन के लिए बहुत कम सबूत होते हैं। ऐसा मान लिया गया है कि गाँधी हमारे पर्यावरणीय संबंधी मुद्दों को गंभीरता से ले रहे थे लेकिन उनके सम्पूर्ण लेखन में से केवल हिंद स्वराज ऐसा है जिसमें उनके पर्यावरणविद वाले रूप को देखा जा सकता है। आज के एक प्रतिष्ठित गाँधीवादी ने यह दावा किया है कि गाँधी विकास की वर्तमान पद्धति कैसे पुरूष द्वारा प्रकृति का शोषण है। इसे समझाते हुए विकास पर एक वैकल्पिक दृष्टिकोण देते हैं। हिंद स्वराज के अभी हाल ही के अपने अध्ययन के बाद मैंने खुद को इस निर्णय से असहमत पाया। आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति की निपुणतापूर्वक निंदा के बावजूद यह पुस्तक प्रकृति के प्रति पुरूष के रिश्तों के बारे में कुछ भी नहीं कहती। फिर भी यह विकास के वैकल्पिक दृष्टिकोण पर थोड़ा बहुत प्रकाश डालती है।

लेकिन शायद हिंद स्वराज इन बातों को तलाशने के लिए उचित जगह नहीं है। यह किताब वास्तव में तब लिखी गई थी जब गाँधी दक्षिणी अफ्रीका में थे। १९१४ में अपने भारत आगमन पर गाँधी ने अपने आप को तत्काल गाँवों की सामाजिक व आर्थिक स्थितियों का प्रत्यक्ष परिचय पाने में लगा दिया। भारतीय गाँवों में उनकी यात्राओं के द्वारा तथा चंपारण व खेड़ा, १९१७ व १९१८ में, किसानों द्वारा प्रारंभिक सत्याग्रहों के दौरान गाँधी ने उपनिवेशवाद को एक आर्थिक शोषण और जातीय विभेद की व्यवस्था की तरह स्पष्ट रूप से देखा। इनका अनुभव वह दक्षिणी अफ्रीका में कर चुके थे।

भारतीय गाँवों में अपनी तल्लीनता तथा उपनिवेशवाद की इस गहरी समझ के द्वारा गाँधी ने यह देखा कि औद्योगिक विकास के पश्चिमी नमूने के साथ बराबरी करना भारत के लिए असंभव होगा। एक साथ यह भी याद रखना चाहिए कि वे कहीं भारत के लिए विकास का वैकल्पिक नमूना पेश नहीं करते है। एक तो उनका चिंतन व्यवस्थित नहीं था और दूसरा वह राजनैतिक गोलबंदी व सामाजिक सुधारों के ज्यादा जटिल सवालों के साथ चिंतामग्न थे। फिर भी,, वैकल्पिक रास्ते के कुछ साक्ष्य उनके १९२०, ३०, ४० के लेखन में बिखरे रूप में है। अब मैं इसी लेखन की ओर आ रहा हूँ।

गाँधी का भारत को अंधाधुन औद्योगिकरण से बचाना प्रायः नैतिक आधारों के नाम पर था, मुख्य तौर पर आधुनिक समाज की स्वार्थता और प्रतिस्पर्धा से। परन्तु उनमें स्पष्टतया पारिस्थितिकीय धीमा स्वर मौजूद था। यंग इंडिया के २० दिसम्बर १९२८ के इस प्रसिद्ध उद्धरण को लेते है-

ईश्वर न करे कि भारत भी कभी पश्चिमी देशों के ढंग का औद्योगिक देश बने। एक अकेले इतने छोटे से द्वीप (इंग्लैण्ड) का आर्थिक सामा्रज्यवाद ही आज संसार को गुलाम बनाए हुए है। तब ३० करोड़ आबादी वाला हमारा समूचा राष्ट्र भी अगर इसी प्रकार के आर्थिक शोषण में जुट गया तो वह सारे संसार पर एक टिड्डी दल की भाँति छाकर उसे तबाह कर देगा।

दो वर्ष पूर्व, गाँधी ने दावा किया था कि-

भारत को इंग्लेण्ड और अमेरिका जैसा बनाना धरती के कुछ स्थानों एवं नस्लों को शोषण के लिए खोजने जैसा होगा। जैसा कि यह प्रतीत होता है कि पश्चिमी राष्ट्र यूरोप से बाहर सभी ज्ञात नस्लों को शोषण के लिए बाँट चुके है तथा अब बाँटने के लिए कोई नई दुनिया नहीं है।

गाँधी ने यह मर्मस्पर्शी सवाल पूछा-

पश्चिम की नकल करने के प्रयास में भारत का भविष्य क्या हो सकता है?

(यंग इंडिया, ०७-१०-१९२६)

इस प्रश्न का उत्तर अब स्पष्टतः कष्टप्रद है। पिछले कुछ दशकों में हम असंदिग्ध रूप से ‘भारत को इंग्लैण्ड और अमेरिका की तरह बनाने’ का प्रयास कर चुके है। संसाधनों एवं बाजारों पर पहुँच का जो आनंद इन दोनों राष्ट्रों ने अपने आप को औद्योगीकृत करते समय शुरूआती समय में उठाया था, इस पहुँच के बिना भारत आज मजबूर होकर अपने लोगों एवं पर्यावरण के शोषण पर निर्भर हो चुका है। ग्रामीण क्षेत्रों के संसाधनों को शहरी वनों, जल के परिवर्तन ने पर्यावरणीय अवनति की प्रकिया को तेज किया है। इस संदर्भ में चिपको और नर्मदा आंदोलन विशिष्ट है लेकिन गाँधी की जीवंत धरोहर के अलग उदाहरण किसी भी तरीके से नहीं है जैसा कि इसने समकालीन पर्यावरणीय आंदोलनों के रूप में ग्रहण किया है। साथ ही यह सम्भ्रांत लोग ग्रामीणों और आदिवासी समुदायों को उनके संसाधनों तक उनकी पहुँच और प्रयोग के परम्परागत अधिकार से वंचित कर चुके है। इस बीच यह आधुनिक क्षेत्र भारत की शेष संसाधन सीमाओं- उत्तर पूर्व और अंडमान निकोबार द्वीप समूहों- में आकामक रूप से जा चुका है।

शायद गाँधी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा। जैसा कि उन्होंने पहचाना था कि शहरी – औद्योगिक विकास के प्रति आग्रह भीतरी प्रदेश के एकतरफा शोषण का ही परिणाम दे सकेगा। गाँधी १९४६ में इसे अपने चिर परिचित अंदाज के साथ प्रकट कर चुके थे :

ग्रामीण रक्त ही वह सीमेंट है जिससे शहरों की इमारतें बनती है।

(हरिजन, २३-०६-१९४६)

इससे पूर्व एक अवसर पर गाँधी अपने चरित्र के अनुसार सभ्य किंतु सबल तरीके से इंदौर में एक सभा को संसाधनों के केन्द्रीकरण की चेतावनी दे चुके थे जिस पर शहरी जीवन आधारित हो चुका था। उन्होंने टिप्पणी की-

हम इस सुंदर पंडाल में बिजली की रोशनी की चकाचौंध में बैठे हैं लेकिन हम नहीं जानते कि हम इस रोशनी को गरीबों की कीमत पर जला रहे है।

(हरिजन, ११-०५-१९३५)

गाँधी ने औद्योगीकरण द्वारा उत्पन्न बुराईयों के निदान की तुलना में उपचार को प्राथमिकता दी, जिसमें आर्थिक विकास गाँवों पर केन्द्रित होगा। उनकी अभिलाषा यह देखने की थी कि-

वह रक्त जो आज शहरों की धमनियों में प्रवाहित हो रहा है, वह एक बार फिर गाँवों की रक्त- शिराओं में प्रवाहित हो।

यहाँ आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण की विशिष्टता थी ताकि वे अपने खुद के मामलों पर नियंत्रण कर सकें। जब गाँधी पर बिजली सहित महान वैज्ञानिक अविष्कारों से पीछे लौटने का दोष लगाया गया तो उनकी टिप्पणी थी (शाब्दिक रूप से विकेन्द्रीकृत ऊर्जा व्यवस्था के सभी तत्वों को प्रेरित करने के लिए):

अगर हम प्रत्येक गाँव के घर में बिजली पहुँचा सकें तो मुझे ग्रामीणों द्वारा अपने कार्यों एवं यंत्रों को बिजली की सहायता से करने में कोई आपति नहीं होगी। लेकिन तब ग्रामीण समुदायों या राज्य का अपना बिजलीघर होग, जिस तरह वे अपना घास का चारागाह रखते हैं।

(हरिजन, २२-०६-१९३५)

१९३७ में वर्धा आने के बाद ग्रामपुनर्रचना के प्रति खुद को समर्पित करने के उद्देश्य से गाँधी ने अपने आदर्श भारतीय गाँव को इस तरह परिभाषित किया –

गाँव में पर्याप्त रोशनी एवं हवादार घर होंगें। इनको बनाने की सामग्री ५ मील के दायरे के भीतर से ही आएगी। घरों में आंगन होगा जिसमें परिवार के लोग घरेलू उपयोग के लिए सब्जियाँ एवं पशुओं के लिए चारा उगाएंगे। गाँव की नालियाँ व गलियाँ साफ सुथरी होगी। सभी लोगों की आवश्यकताओं एवं पहुँच के अनुकूल कुएं होगें। सभी के प्रवेश के लिए खुले पूजा स्थल होगें।, साथ ही एक सार्वजनिक स्थान होगा, जहाँ लोग आपस में मिल सकें, सहकारी डेयरी (दुग्धशाला) होगी, प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय होगें, जिसमें रोजगारोन्मुखी शिक्षा दी जाएगी, तथा विवाद निपटारे के लिए पंचायत होगी। यह गाँव अपनी आवश्यकता का अन्न, फल, सब्जियाँ, खुद उपजाएगा। यही मेरे आदर्श गाँव का चित्र है …..

(हरिजन, ०९-०१-१९३७)

इस चित्र में अनेक ऐसे तत्व है जो पर्यावरणवादी के यूटोपिया में बिल्कुल सही बैठते हैं। स्थानीय आत्मनिर्भरता, एक साफ़ व स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण, मानवीय जीवन के लिए अत्यावश्यक इन प्राकृतिक उपहारों का सामूहिक प्रबंधन एवं उपयोग, जल और चारागाह।

लेकिन गाँधी में अपने यूटोपियन सपनों को व्यवहार में कर दिखाने का गजब कौशल था। इस संबंध में मृदा उर्वरकता की महत्वपूर्ण समस्या के प्रति उनकी सजगता देखने योग्य है। उनके जीवन के अंतिम समय में, उन्होंने कृषि के तीव्र मशीनीकरण के प्रति आगाह किया था कि –

जल्दी लाभ पाने के लिए मृदा उर्वरकता में व्यापक भयानक व अदूरदर्शी नीति सिद्ध होगा। इसका परिणाम मृदा के सामान्य रिक्तिकरण के रूप में होगा।

(हरिजन, २५-०८-१९४६)

वह खाद के उत्साही समर्थक थे जो मृदा को समृद्ध करती है, कचरे के प्रभावी प्रबंधन के द्वारा गाँव के स्वास्थ्य में वृद्धि करती है, विदेशी विनिमय बचाती है तथा फसल उत्पादन को बढ़ाती है – यही सभी कुछ जो हम जानते हैं। यह सभी आधुनिक रासायनिक तकनीकों के कारण संसाधनों के होने वाले निकास तथा सहवर्ती प्रदूषण के बिना होता है। गाँधी  इंदौर में अपने प्लांट इण्डस्ट्रीज संस्थान में जैविक खेती के तरीकों का मार्ग प्रशस्त करने वाले एल्बर्ट हॉवर्ड के कार्य का हार्दिक सम्मान करते थे। अपने हरिजन में गाँधीजी ने अनुमोदन करते हुए विस्तार से हॉवर्ड और उनके सहयोगियों द्वारा विकसित किए गए तरीकों का वर्णन किया जिसमें गोबर, खेत का कचरा, लकड़ी की राख तथा मूत्र के मिश्रण को महत्वपूर्ण खाद में बदला जाता था। (हरिजन, १७-८ व २४-०८-१९३५)

अंत में, आधुनिक सभ्यता की गाँधी द्वारा दार्शनिक आलोचना हमारी जीवन शैली और आज के दूसरे पर्यावरण जुड़ाव के लिए गहन निहितार्थ रखती है। उनके लिए –

इधर आधुनिक सभ्यता का सबसे प्रधान लक्षण है मनुष्य का अपनी आवश्यकताओं को अंधाधुंध बढ़ाते जाना, तो प्राचीन पूर्वीय सभ्यता का मुख्य लक्षण है इन आवश्यकताओं या कामनाओं पर कठोर नियंत्रण लगाना और उनको सख्ती से मर्यादित करना।

(यंग इण्डिया, ०२-०६-१९२७)

अपने अंदाज के ठीक उल्टे कड़े शब्दों में कहा कि –

काल और देश की दूरी मिटा देने और पाशविक वृतियों को बढ़ाने और उनकी तृप्ति की खातिर ज़मीन आसमान के कुलाबे एक कर देने की इस विवेकहीन आकांक्षा को मैं पूरी तरह से नापसंद करता हूँ। आधुनिक सभ्यता यदि इन्हीं सब बातों के समर्थन को अपना लक्ष्य मानती है, और मैं तो समझता हूँ कि मानती है, तो मैं उसे हैवानियत कहता हूँ। (यंग इण्डिया, १७-०३-१९२७)

व्यक्तिगत स्तर पर गाँधी की स्वैच्छिक सादगी की आचार संहिता आधुनिक जीवन शैली का एक टिकाऊ विकल्प प्रस्तुत करती है। उनकी एक प्रसिद्ध सूक्ति यह है कि –

संसार में इतने संसाधन है कि वह प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता पूरी करने में समर्थ है किन्तु यह एक व्यक्ति के लालच के लिए भी पर्याप्त नहीं है।

वास्तव में यह गूढ़ पंक्ति पर्यावरणीय लोकाचार है। ऐसा लोकाचार जिसका प्रयोग उन्होंने खुद संसाधन पुनर्भरण तथा आवश्यकताओं के न्यूनीकरण के लिए किया। यह सभी उनकी जिंदगी से जुड़े हुए थे।

आर्थिक विकास की व्यापक प्रक्रिया के उनके विशेषण, ग्राम पुनर्रचना के उनके निर्देशन, जीवन के लिए उनके लोकाचार इन सभी स्तरों पर गाँधी का लेखन जब समकालीन संदर्भों में पुनः परिभाषित किया गया तो यह पर्यावरणीय संकटों की सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि प्रदान करता है। उनके जीवन काल में यह आर्थिक दर्शन उनके एक निकटस्थ शिष्य जे.सी. कुमारप्पा द्वारा विस्तृत एवं समृद्ध किया गया। कुमारप्पा प्रथम गाँधीवादी पर्यावरणवादी के रूप में विचारित कियए जाने का प्रबल दावा रखते हैं। हालाँकि आजकल उनके कार्य को व्यापक रूप से विस्मृत व उपेक्षित किया जा रहा है। अतः यहाँ पर एक संक्षिप्त मूल्यांकन करना अप्रासंगिक नहीं होगा।

कुमारप्पा तमिल ईसाई थे। लंदन से अकाउटेंसी पढ़ कर आए थे। बम्बई में ऑडिटर के रूप में उनकी प्रैक्टिस अच्छी खासी चल रही थी, जिसे उन्होंने न्यूयार्क में कोलम्बिया विश्वविद्यालय से स्नातकोतर उपाधि लेने के लिए अस्थायी रूप से छोड़ दिया। वह वहाँ सार्वजनिक वित्त के अध्ययन में लगे। उसमें उन्होनें भारतीय अर्थव्यवस्था के उपनिवेशी शोषण का व्यवस्थित रूप से पर्दाफाश किया। १९२९ में वह एक राष्ट्रवादी के रूप में भारत लौट आए। जल्द ही गाँधी के संपर्क में आए। सार्वजनिक वित पर उनका शोध यंग इंडिया में धारावाहिक रूप में छपा। कुमारप्पा ने स्वयं ही अपनी प्रैक्टिस को स्थगित किया ताकि साबरमती आश्रम से जुड़ सकें। वह गाँधी की ग्राम पुनर्रचना की योजना में लगाए गए तथा अगले दशक तक कृषि अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण सर्वेक्षण का संचालन किया। अखिल भारतीय चरखा संघ और अखिल भारतीय ग्रामोद्योग – इन दो प्रमुख गाँधीवादी संस्थाओं को चलाने में सहायता की।

१९३० व १९४० में लिखी पुस्तकों में कुमारप्पा ने गाँधीवादी अर्थशास्त्र को औपचारिक रूप देने की कोशिश की। गाँधी जैसे बुद्धिमान परामर्शदाता की तरह ही, कुमारप्पा के लेखन में भी गहन पारिस्थितिकीय संदर्भों के साथ सर्वेक्षण यहाँ वहाँ बिखरे हुए है। मसलन यह टिप्पणी पारिस्थितिकीय उतरदायित्व के लिए मूलमंत्र का कार्य करेगी –

हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय स्तर पर वस्तुएँ उत्पन्न करके करते ही हैं तो इस स्थिति में होते हैं कि उत्पादन के तरीकों का निरीक्षण कर सकें। इसी बीच अगर हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति धरती के दूसरे कोने से मंगा कर करें तो फिर उन जगहों पर हो रहे उत्पादन की परिस्थितियों, प्रक्रियाओं पर कुछ नहीं किया जा सकता।

अपने गुरू की भांति जे.सी.कुमारप्पा प्रबलता से औद्योगिक सभ्यता की निंदा करते हैं-

विनाश के बिना कहीं भी औद्योगीकरण संभव नहीं हो सकता है।

वे कहते हैं कि उस अवस्था में आजीविका हेतु कृषि सर्वश्रेष्ठ है और होनी चाहिए जिसमें पुरूष प्रकृति को तथा अने पर्यावरण को इस तरीके से नियंत्रित करने का प्रयास करता है ताकि बेहतर नतीजे प्राप्त हो सकें। यह ध्यान देने की बात है कि उन्होंने कृषि और उद्योग के मध्य इस विरोध को प्राकृतिक जगत पर उनके प्रभाव के संदर्भ में बताया है। वह इसे इस प्रकार बताते हैं –

कृषि अर्थव्यवस्था में व्यवस्था प्रकृति से विहित होती है। जिसमें असीमित रूप से हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। अगर इनमें विभिन्नता है तो यह प्राकृतिक उत्परिवर्तन का अनुसरण करता है। कृषक प्रकृति को सहयोग देता है या एक लंबी अवधि में होने वाली परिघटना को कम समय में होने का अवसर प्रदान करता है। आर्थिक व्यवस्था (औद्योगिक समाज) के भीतर हम पाते हैं कि प्रकृति द्वारा परिवर्तन हिंसक होते हैं, माँग का विचार किए बिना वस्तुओं की व्यापक पूर्ति उत्पन्न की जाती है तथा चतुर विज्ञापनों के साधनों द्वारा कृत्रिम रूप से वस्तुओं की मांग निर्मित की जाती है।

फिर भी अपनी पीढ़ी के अधिकांश गाँधीवादियों की भाँति कुमारप्पा सैद्धान्तिक चिंतन में प्रमुख रूप से रूचि नहीं लेते थे। उनकी रूचि भारतीय किसान और कारीगर की दुर्दशा को सुधारने में थी। कृषि अर्थव्यवस्था में प्राकृतिक संसाधनों की सजग व्यवस्था ही वह मुख्य प्रतिपाद्य विषय है जो उनके अधिकांश कार्यों में दिखाई देता है। इस प्रकार उन्होंने मल को खाद की भाँति उपयोग करने की आवश्यकता, जातिगत रूकावटों को जीतने के माध्यम के रूप में मानवीय मल तथा गाँव के कचरे को जैविक खाद में बदलने के लिए लोगों को व्यक्तिगत अनुदान देने पर बल दिया। इसी समय कुमारप्पा ने मृदा की गुणवता को मृदा क्षरण और जल स्तर की जाँच के माध्यम से बनाए रखने की महता पर बल दिया।

संभवतः जल और जंगल दो ऐसे संसाधन क्षेत्र हैं जिनके लिए वर्तमान वर्षों में भारतीय पर्यावरणीय आंदोलनों में सर्वाधिक प्रयास हुए हैं। इस संबंध में कुमारप्पा ब्रिटिश शासन के भीतर सिंचाई जलाशयों की दुर्व्यवस्था की आलोचना करने में कमजोर नहीं है साथ ही वह भूमिजल स्तर में वृद्धि के लिए जल संरक्षण तथा खारेपन को कम करने का तर्क भी देते हैं वन प्रबंधन के वास्तविक और पसंदीदा नमूनों पर सारगर्भित टिप्पणी में वह कहते हैं –

सरकार को अपनी वन प्रबंधन की नीति को आमूलचूल रूप से पुनर्विचारित करना होगा। वन प्रबंधन आज के उद्देश्य के द्वारा नहीं बल्कि लोगों की जरूरत के अनुसार निर्देशित होना चाहिए …….. वन योजनाएँ ग्रामीणों की आवश्यकताओं पर आधारित होनी ही चाहिए। वनों को दो मुख्य भागों में बांट देना चाहिए।

१. वे जो दीर्घकालीन सीमा को ध्यान में रखते हुए इमारती लकड़ी की पूर्ति करते हो।

२.वे जो घास और इर्ंधन की पूर्ति करते हो, इन्हें लोगों को मुफ्त या फिर नाममात्र की दरों पर उपलब्ध करवाना होगा।

गुड़, कागज़ निर्माण, कुम्हारी आदि ग्रामोद्योग तभी उन्नति कर सकते हैं जबकि घास और ईंधन उन्हें अत्यन्त सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाए जाए।

कुमारप्पा की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जैवमण्डल (बायोमॉस) की संभाव्य कमी पर टिप्पणियाँ दूरदर्शितापूर्ण हैं। वह विशेष रूप से चारे की उपलब्धता के बारे में दिलचस्पी लेते थे। उन्होंने इस ओर भी इशारा किया था कि जूट, तम्बाकू, गन्ने की नकद फसलें मनुष्यों एवं उनके घरेलू जानवरों के लिए खाद्य उपलब्धता में कमी लाती है। उन्होंने किसानों की पर्याप्त चरागाह भूमि नहीं होने की व्यापक समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया। कुमारप्पा उपनिवेशी सरकार से बिना भुगतान के पशुओं को चराने की अनुमति देने की हिचकिचाहट के बारे में बात करने को कहते हैं।

मृदापोषण तथा उर्वरकता, जल संरक्षण पुनर्भरण, ग्रामीण वन अधिकार, जैवमंडल यह ग्रामीण पर्यावरणीय समस्याओं का कार्यक्रम है जिससे आज भी हमारा गहरा संबंध है। कृषि को इसकी प्राकृतिक स्थितियों में दृढ़ता से स्थापित कर कुमारप्पा यह कह सकते हैं कि वह गाँधीवादी मार्ग पर एक पारिस्थितिकीय कार्यक्रम के निर्माण की शुरूआत कर चुके थे। यद्यपि आज के पर्यावरणवादी केवल वहीं से उस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं जहाँ कुमारप्पा ने उस कार्य को छोड़ा था।

महात्मा गाँधी की एक अन्य सहयोगी मीराबेन (मेडॅलीन स्लेड) पर्यावरणीय विचारकों अपने समय से काफी आगे थीं। वह अंग्रेज एडमिरल की पुत्री थी जो १९२५ में साबरमती आश्रम में आयी थी। जे.सी.कुमारप्पा की तरह मीराबेन भी गाँधी के घनिष्ठ लोगों के समूह का हिस्सा थीं। तमिल अर्थशास्त्री की तरह उन्होंने भी अनेक वर्ष ग्रामीण पुर्नरचना के  कार्य हेतु तथा अपने गुरू के निर्देशों को व्यवहार में लागू करने में बिताए। 1947 में हिमालय की पहाड़ियों में ऋषिकेश के नज़दीक एक आश्रम स्थापित किया। कुछ वर्षों के बाद वह अपना स्थान बदलकर  भीतरी पहाड़ियों में भीलंगना घाटी में चली गई थीं। मीराबेन ने उस समय लिखे एक लेख में हिमालय के वनक्षरण, मृदाक्षरण व बाढ़ों के बीच घनिष्ठ संबंध की ओर नीति निर्माताओं का ध्यान खींचा था। चिपको आंदोलन से सालों पहले ऐसी आलोचनाओं को व्यापक बल देने के लिये उन्होंने वन प्रबंधन में निम्न कमियाँ बतायी थीं –

पहली-ग्रामीणों की भागीदारी का अभाव

दूसरी-अनेक क्षेत्रों में चीड़ के वद्यक्षों के स्थान पर ओक के वद्यक्षों को लगाना-ओक ऐसी प्रजाति है जिसमें बरसात के पानी को धारण करने व सोखने की कम क्षमता है।

उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को चित्रों के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट भेजी। नेहरू ने उसे संबंधित वन अधिकारियों की ओर बढ़ा दिया लेकिन (जैसा कि मीराबेन ने कई वर्षों बाद नाराज़गी के साथ लिखा) – ‘वन विभाग के लिए काम संबंधी आवश्यक परिवर्तन बहुत आधारभूत थे।’

ग्रामीण उत्तर प्रदेश में अपने वर्षों में मीराबेन ने भारतीय कृषि की प्रमुख पारिस्थितिकीय समस्याओं पर कुछ उपयोगी टिप्पणियाँ की थी। यह समस्याएँ आज भी हमारे सामने मौजूद हैं। उन्होंने बताया कि नहर द्वारा सिंचाई की योजना में जल संचय अनिवार्य रूप से ज़रूरी है, धरती की जुताई पशुओं के चारे के लिए व मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए ज्यादा उपयुक्त है। मीराबेन के लिए पारिस्थितिकीय परिवर्तन और संकट की तीव्रता आज के आधुनिक जीवन की विशिष्ट पहचान थी। उत्तरी अमेरिका और मध्यपूर्व में प्राचीन सभ्यताएँ प्राकृतिक पर्यावरण के दुरूपयोग के कारण ढह चुकी थीं। उन्होंने ५ जून, १९५० के हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा था- ‘जो बात उन दिनों में हजारों सालों में होती है आज आधुनिक मशीनों व विज्ञान के युग में वह १०० सालों में हो जाती है।’

गाँधी और कुमारप्पा की तरह मीराबेन का प्राथमिक संबंध भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनः प्रतिष्ठित करना था। प्राकृतिक पर्यावरण में उनकी रूचि मात्र याँत्रिक नहीं थी। अनेक समयों पर उन्होंने वर्ड्सवर्थ की पक्की यूरोपियन रोमांसवादी परम्परा के साथ एक आध्यात्मिक बंधुता को भी अभिव्यक्त किया है। वह अपने आप को ‘आदियुगीन धरती माता की भक्तिन’ कहती थी। जैसा कि अप्रेल, १९४९ में उन्होंने लिखाः

आज सबसे बड़े दुःख की बात यह है कि शिक्षित और धनी वर्ग ने अस्तित्व के जीवनप्रद मूल तत्वों – हमारी धरती माँ, उसके द्वारा धारित प्राणी व अन्नजगत –  के साथ अपना नाता पूरी तरह तोड़ लिया है। प्रकृति की योजना का यह संसार मनुष्य द्वारा जब कभी भी अवसर मिलने पर बेरहमी से लुटा, छिना व छिन्न-भिन्न किया गया। विज्ञान व मशीन के द्वारा वह एक समय के लिए व्यापक लाभ प्राप्त कर सकेगा परंतु अंततः उदास ही होगा। अगर हमें शारीरिक रूप से स्वस्थ और नैतिक रूप से सभ्य प्रजाति के रूप में बने रहना है तो हमें प्रकृति के संतुलन का अध्यन करना होगा तथा इसके नियमो के मुताबिक अपनी जिंदगी विकसित करनी होगी।

मैंने अपनी बात भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन पर महात्मा गाँधी के स्पष्ट प्रभावों की पहचान व टिप्पणी के साथ शुरू की थी। तब मैंने अतीत में जा कर यह जाँचने का प्रयास किया कि किस सीमा तक गाँधी खुद वर्तमान की पारिस्थितिकीय समस्याओं का स्पष्ट पूर्वानुमान लगा चुके थे। इस संबंध में साक्ष्यों ने इस बात को मजबूती के साथ प्रस्तुत किया है कि गाँधी और जे.सी. कुमारप्पा तथा मीराबेन जैसे उनके अनुयायियों के विचारों ने भी पर्यावरणीय आंदोलन के लिए उत्कृष्ट लाभदायक अतीत निर्मित किया है।

अब समय है कि हम अपना ध्यान एक व्यापक, प्रचलित मिथक पर केन्द्रित करते है जिसका  स्त्रोत महात्मा गाँधी के पर्यावरणीय योगदानों की पुनर्प्रतिष्ठा में है। प्रमुखतः आंदोलन के रेडिकल पक्ष के बीच खास किसी व्यक्ति के साथ अच्छाई-बुराई तसदीक करने की खेदजनक प्रवृति प्रचलित है। रेडिकल पर्यावरणवादी के लिए गाँधी उसी अनुपात में अच्छे हैं जिस अनुपात में नेहरू बुरे हैं। गाँधी को सम्मान व अनुसरण करने के प्रतीक रूप में अपनाते समय एक साथ उनकी अच्छा जवाहर लाल नेहरू के प्रेतीकरण की होती है। जिसके ऊपर वह भारतीय समाज के पारिस्थितिकीय संकट के लिए दोषारोपण करते है। अनेक पर्यावरणवादी यहाँ तक विश्वास करते है कि गाँधी पारिस्थितिकीय रूप से सुदृढ़ विकास की रूपरेखा खुद ही बना चुके थे। यह गाँधीवादी विकल्प नेहरू द्वारा कचरे के ढ़ेर में डाल दिया गया। नेहरू ने तब स्वतंत्र भरत पर अपना खुद का पूँजीगहन, पर्यावरणीय रूप से विध्वसंक, आर्थिक विकास थोप दिया। इस बात पर प्रकाश डालने के लिए एक कहानी देश छोड़कर अभी ब्रिटेन में रह रहे भारतीय पर्यावरणवादी ने मुझे अभी हाल ही में बतायी थी। गाँधी नेहरू के साथ इलाहबाद में नेहरू के घर ठहरे हुए थे। गाँधी ने सुबह-हाथ मुँह धोने के लिए एक बाल्टी पानी के लिए कहा। नेहरू ने दो बाल्टियॉं भेजी जिस पर गाँधी ने एक वापस भेज दी।

जवाहर ने विरोध जताया, ‘क्यों गाँधीजी, यह वह शहर है जहाँ गंगा, यमुना का संगम होता है, यहाँ पानी की कमी नहीं हो सकती।‘

इस घटना का अभिप्राय गाँधी की दूरदर्शिता तथा उनके मेजबान के अपव्ययी तरीकों को बताना है। इन्हीं तरीकों ने १९४७ के बाद नए राष्ट्र द्वारा अपनाए गए विध्वंसक विकास के रास्ते में सुदृढ़ अभिव्यक्ति प्राप्त करने का विश्वास हासिल कर लिया था। कहानी का कोई स्त्रोत नहीं दिया गया है। लगभग निश्चित रूप से यह पर्यावरणवादी की मनगढ़त बात है। आज भी गाँधीवादी पर्यावरणवादियों ने इस कहानी में व्याप्त विश्वास को व्यापक रूप से अपना रखा है। इस बात को बताने के लिए मैं कई उदाहरणों  में से एक को चुन कर आपको बताता हॅूं। कुछ वर्षों पहले प्रकाशित एक निबंध में एक प्रमुख भारतीय पर्यावरणीय लेखक एवं कार्यकर्ता ने दावा किया कि ‘महात्मा गाँधी द्वारा जवाहरलाल नेहरू को भारत को अतिउपयोग के रास्ते की ओर न ले जाने के बारे में समझाने-बुझाने के सारे प्रयास व्यर्थ हुए।’

संक्षिप्त रूप में यह कथन मिथक के दो प्रमुख तत्वों को बताता है-

पहला – पर्यावरणीय दृष्टिकोण से कहा जाए तो नेहरू अपव्वयी और गाँधी दूरदर्शी थे।

दूसरा – गाँधी के पास भारत के लिए विकास का अपना वैकल्पिक प्रारूप था जिसे नेहरू ने अपने दर्प में बिना विचारे अस्वीकृत कर दिया।

अतः बात यह है कि आज के पर्यावरणीय वाद-विवाद गाँधी और नेहरू के मरणोपरांत उन्हें उग्र जन प्रतिस्पर्धा में ला चुके हैं जो भावनात्मक रूप से हिंसक हैं तथा इन दोनों के बीच विद्यमान घनिष्ठ संबंधों को नजरअंदाज करता है।

गाँधी का नेहरू से पर्यावरणवादी विरोध अंशतः एक स्वयंसिद्ध पहेली को समझने की आवश्यकता से उत्पन्न हुआ है कि स्वतंत्र भारत का विकास अनुभव पारिस्थितिकीय सरोकारों के प्रति गंभीर संवेदनशून्यता को प्रकट कर चुका है । हम जो कुछ अभी तक प्रमुख रूप से बता चुके है, इसके बावजूद ‘राष्ट्रपिता’ प्रबल रूप से ‘प्रारंभिक पर्यावरणवादी’ थे। दूरदर्शी गाँधी को अभिजात नेहरू के साथ विरोध में खड़ा करके इस पहेली को सरलता से बताया जा सकता है तथा एक षडयंत्र सिद्धांत को पेश करके भी, जिसमें नेहरू तख्तापलट के रूप में पहले कांग्रेस को अपने अधीन लेते है तथा बाद में तेजी से कांग्रेस को गाँधीवादी विरासत से छुटकारा दिला देते है।

यह पहेली अस्तित्व में है, इस पर मेरा विवाद नहीं है। लेकिन जिस तरह और जिस रूप में यह पर्यावरणीय आंदोलन में मेरे मित्रों द्वारा प्रायः व्याख्यायित की जाती है, मैं इसकी जाँच करना चाहता हूँ और यहाँ तक की शायद चुनौती भी देना चाहता हॅूं। गाँधी व नेहरू की उनकी श्वेत-श्याम छवियों को चुनौती देने का मतलब इन दोनों व्यक्तियों की गंभीर दार्शनिक विभिन्नताओं की अवहेलना करना नहीं है। स्वतंत्र भारत का गाँधीवादी दृष्टिकोण ग्रामीण पुनरूद्धार पर केन्द्रित था जबकि उसी दृढ़ता से नेहरू का दृष्टिकोण तीव्र औद्योगिक विकास पर केन्द्रित थ। गाँधी ने परिवर्तन की तुलना में स्थिरता को प्राथमिकता दी लेकिन अधीर नेहरू ने स्थिरता की तुलना में परिवर्तन को प्राथमिकता दी। इन दोनों के बीच यह मतभेद अक्टूबर, १९४५ में एक दूसरे को लिखे पत्रों में साफ तौर पर उभर कर सामने आते है। स्वतंत्रता पश्चात् सामाजिक व आर्थिक उद्देश्यों पर कार्यसमिति की सभा के बाद गाँधी ने नेहरू को अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा कि-

भारत ग्रामीण जीवन की सरलता में ही सत्य और अहिंसा को अनुभव कर पायेगा।

उन्होंने औद्योगिक समाज की तुलना पतंगे से की जो रोशनी के इर्द-गिर्द तेजी से घूमता है और खुद को समाप्त कर देता है। इसके जवाब में नेहरू ने इस बात का प्रतिवाद किया कि गाँव सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों को मूर्त रूप दे सकेगें। नेहरू के लिए गाँव बौद्धिक एवं सांस्कृतिक दोनों रूपों से पिछड़ी स्थिति थे। आर्थिक नियोजन के मुख्य उद्देश्य के रूप में नेहरू ने ‘अतिउपभोग’ (जैसाकि पर्यावरणवादी जताना चाहते है) को नहीं बल्कि ‘हर भारतीय के लिए भोजन, कपड़े, आवास, षिक्ष, स्वास्थ्य की समुचित पर्याप्तता’ को निर्धारित किया। इस उद्देश्य को लेकर दोनों में सहमति थी मगर नेहरू अपने समय के अन्य बौद्धिकों की तरह इस बात के कायल थे कि इस तथ्य को केवल तीव्र औद्योगीकरण एवं आधुनिक तकनीक के उपयोग से प्राप्त किया जा सकता है।

इन मत विभिन्नताओं के साथ-साथ हमें गाँधी व नेहरू के बीच गहरे व चिर स्थायी स्नेह को ध्यान में रखना ही होगा। गाँधी ने जुलाई, १९३६ में लिखाः

मैं खुद को नेहरू के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में नहीं देख सकता और न ही नेहरू को मेरे।

आगे वह लिखते है किः

और न ही हम हैं। एक सामान्य लक्ष्य की तलाश में एक दूसरे का स्नेह जीतने में प्रतिद्वन्द्वी हैं और यदि उद्देश्य तक पहुँचने के संयुक्त कार्य में हम एक समय अलग-अलग रास्ते अपनाते हुए प्रतीत होते है तो मुझे आशा है कि दुनिया यह पाएगी कि हम एक क्षण के लिए लेकिन बेहतर पारस्परिक आकर्षण व स्नेह से पुनः मिलने के लिए एक दूसरे की दृष्टि से ओझल हो गए।

मैं नहीं जानता कि पर्यावरणवादी इस बात का तालमेल गाँधी-नेहरू ध्रुवता के साथ कैसे बिठायेंगे? जिसे वे इतनी गर्मजोशी के साथ थामे हुए थे। वास्तव में पर्यावरणवादी १९३० के शुरू में महात्मा गाँधी की नेहरू को उनके उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकारने की सार्वजनिक घोषणा की उपेक्षा कैसे कर सकते है; एक उत्तराधिकार जिसकी पुष्टि गाँधी बाद के वर्षों में बार-बार करते है। वास्तविकता यह है कि स्वतंत्रता से पहले के महत्वपूर्ण वर्षों की पर्यावरणवादियों की व्याख्या इस बात को समझने में असफल रही है कि १९४० और उसके आसपास गाँधी के आर्थिक विचारों को राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा निश्चित रूप से अस्वीकृत किया जा चुका था। उस समय राजनीतिज्ञों एवं बौद्धिकों के बीच यह जबर्दस्त चेतना व्याप्त थी कि स्वतंत्र भारत में तीव्र औद्योगीकरण ही उचित आर्थिक रणनीति थी। इस रणनीति के समर्थकों का विश्वास था कि यह आगे चल कर गरीबी और बेरोजगारी को घटाएगी तथा एक मजबूत, आत्मनिर्भर एवं वास्तविक स्वतंत्र समाज बनाएगी। नेहरू ने इस चेतना को कुशल रीति से, विस्तार से अभिव्यक्त किया लेकिन नेहरू के पीछे गहरे राष्ट्रवादी लोगों एवं सच्चे वक्ताओं का एक संगठित दल था।

असल में, अगर १९४७ की आर्थिक नीति के आधार के रूप में गाँधीवादी प्रतिरूप वास्तव में अपना लिया गया होता तो देश के मजबूत और बहुसंख्यक लोगों के मत के सामने एक अलोकतांत्रिक स्थिति होती। ‘गाँधीवादी विकल्प’ का वास्तविक हाशियाकरण (marginalization) जैसा कि वास्तव में था, जे.सी. कुमारप्पा के कार्यकाल में ही स्पष्ट हो चुका था। १९३७ में वह कांग्रेस की राष्ट्रीय योजना समिति के लिए अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किए गए लेकिन जब राष्ट्रीय योजना समिति के सदस्य साथियों ने योजना के केन्द्र में गाँव को रखना अस्वीकार किया तो इन्होंने इस्तीफा दे दिया। आज़ादी के बाद सर्व सेवासंघ द्वारा कुमारप्पा योजना आयोग की सलाहकार सभा में प्रतिनिधित्व करने हेतु नियुक्त किए गए। पुनः गाँधीवादी अर्थशास्त्री ने जल्द ही यह ताड़ लिया कि वह अल्पसंख्यकों में से एक है और समिति को छोड दिया। हमारे लाभ की दृष्टि से पर्यावरणवाद के समय से पहले महात्मा और उसके शिष्यों को पर्यावरणवादियों की तरह प्रसिद्ध करना संभव है। इसके विपरीत, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री राष्ट्रीय आंदोलन के बहुसंख्यक बौद्धिक मत का प्रतिनिधित्व करते थे जिसकी सोच थी कि भारत का पुनर्जीवनीकरण व्यापक औद्योगिक द्वारा ही हो सकता है। कोई भी गाँधी और कुमारप्पा के अपने समय से आगे होने या कहना चाहिए दूरदर्शी होने पर गर्व कर सकता है लेकिन नेहरू के समकालीन होने की निंदा करना पूर्णतया अ-ऐतिहासिक साथ  ही साथ अनुचित भी होगा।

महान ब्रिटिशसमाजवादी एडवर्ड कारपेंटर ने एक बार टिप्पणी की थी कि एक युग के निर्वासित दूसरे युग के नायक हैं। शायद यह बात कि एक युग के नायक दूसरे युग के निर्वासित होते है, उतनी ही सत्य है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवनकाल में इतना पसंद नहीं किया गया जितना कि जवाहरलाल नेहरू; साथ ही कोई भी व्यक्ति उसकी मृत्यु के बाद इतना कुप्रचारित नहीं हुआ जितने कि नेहरू। यह प्रतीत होता है कि आज भारत की जो भी समस्याएं है उसके लिए नेहरू उत्तरदायी है। जहाँ दक्षिणपंथी नेहरू की छद्य धर्मनिरपेक्षता तथ राज्य नियोजन की नीतियों को पकड़े हुए हैं जो कि साम्प्रदायिक निष्कर्षों एवं आर्थिक स्थरीकरण के लिए स्पष्टतया उत्तरदायी है। वहीं वामपंथी निष्क्रिय होकर इस व्यक्ति के छद्म समाजवाद और पारिस्थितिकीय अहंकार के क्रिया-व्यवहारों में आर्थिक असमानता और पर्यावरणीय अवनति के अवशेष खोज रहे हैं।

पर्यावरणीय आंदोलन के बाहर और भीतर नेहरू का प्रेतीकरण इस संभावना को कोई जगह नहीं देता कि समय के अनुसार व्यक्ति और विचार भी बदलते है। उदाहरण के लिए सरदार सरोवर परियोजना के विवाद को लेते है, जिसे पर्यावरणवादी नेहरू-गाँधी विरोध के संदर्भ में प्रस्तुत करने में सरलता अनुभव करते है। परियोजना की एक आलोचना अभी हाल ही में एक पुराने ऐतिहासिक मंदिर के बांध के बढ़ते पानी की वजह से डूबने के कारण लिखी गयी जिसमें लेखक द्वारा उसे ‘जवाहरलाल नेहरू के आधुनिक भारत के मंदिर’ की तरह बताया गया है। यहाँ ३० साल पहले गुजरे हुए इंसान को आज बांध के निर्माण के लिए दोषी ठहराया जा रहा है केवल एक सूक्ति के आधार पर जो स्वतंत्रता के शुरूआती वर्षों में एक अन्य बांध बनने को वर्णित करने हेतु उसने प्रयुक्त की। लेकिन कोई भी कैसे विश्वास कर सकता है कि नेहरू जैसा उदार एवं खुले विचारों का आदमी अपने विरोध में सबूतों के भंडार के बावजूद एक दृष्टि पर इतना दृढ़ रहा होगा? मुझे थोड़ा संदेह है कि अगर गाँधी और नेहरू आज जिंदा होते तो सरदार सरोवर विवाद पर वे अपने आपको एक पक्ष में पाते।

नेहरू के प्रेतीकरण का आग्रह अमेरिका और इतिहास की भारतीय दृष्टि से आता है जिसमें विशेषतः विश्व निष्क्रिय रूप से अच्छे और बुरे लोगों में बँटा रहता है। ये श्वेत-श्याम चित्र विशेषतः सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुकूल हैं –  एक समय यह मार्क्सवादियों का लक्षण था तथा अब यह खेदपूर्वक रेडिकल पर्यावरणवादियों के लक्षणों के रूप में प्रतीत होते है। व्यक्तियों के विचारों और कार्यों को संदर्भों में देखना चाहिए, यह इतिहासकार का काम है। ऐसा करते हुए वह अपने आप को कम या ज्यादा अंशों में कार्यकर्ता के विश्वास का परीक्षण करता हुआ पाता है। यह इस भावना में है कि मैं पर्यावरणवादियों की नेहरू की कृष्ण छवि का विरोध कर चुका हूँ और साथ ही इसी जोश के साथ गाँधी को पाक साफ़ बता देना, इन दोनों का मैं विरोध करता हूँ। जैसा मैंने कहा है कि गाँधी की जो ऐतिहासिक छवि है वह विचारों का एक पुँज है और अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति विद्रोह तो है ही साथ ही पर्यावरणवादी दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। बहुत कुछ अविवादित है लेकिन शायद यह पूछने का समय है किः

‘क्या ऐसे तरीके हैं जिससे गाँधी की विरासत आंदोलन को वास्तव में सीमित कर सकती है? या ज्यादा स्पष्ट रूप से रखा जाए तो क्या गाँधी आज के सामाजिक व पर्यावरणीय पुनरूद्धार में लगे लोगों के सभी प्रश्नों के उत्तर दे सकते है?’

कुछ पर्यावरणवादी सुनिश्चित हैं कि – हाँ, वह दे सकते हैं। वास्तव में एक मित्र ने हाल में ही एक दावा किया कि ‘हर पर्यावरणीय घटना/संकट/चुनौती के लिए कोई भी गाँधी में दिशा निर्देष एवं प्रेरणा ढूँढ सकता है।’ इस सर्वाधिक प्रबल कथन के होते हुए भी मैं सोचता हॅूं कि गाँधी सभी उत्तर उपलब्ध नहीं करा सकते, कुछ समय तो वह सही प्रश्न भी नहीं पूछते ।

मुझे स्पष्ट करने दें। मैं विश्वास करता हूँ कि महात्मा गाँधी की घरोहर पर्यावरणीय आंदोलन की दृष्टि से दो महत्वपूर्ण पहलुओं को सीमित कर चुकी है-

पहला- अधिकांश पर्यावरणवादियों का गाँवों पर अत्यधिक ध्यान केन्द्रित करना गौरतलब है। गाँधी की भाँति उनके आज के अनुयायी शहरी संदर्भ और उसकी विशिष्ट सामाजिक व पर्यावरणीय समस्याओं के बारे में अल्प समझ रखते हुए प्रतीत होते है। भारतीय पर्यावरणवादी शहरी औद्योगिक जीवन शैली की अपनी क्रोधपूर्ण भर्त्सना करने मे इस तथ्य को जान चुके है कि इस सदी के अंत तक भारत में विश्व की सर्वाधिक शहरी जनसंख्या होगी। परिसर जैसे समूह हमें इन प्रश्नों के बारे में सचेत करने में बहुत कुछ कर चुके हैं। इस शहर में बोलते हुए मैं इस तीव्र और अनियंत्रित शहरीकरण के साथ जुड़ी पारिस्थितिकीय समस्याओं को ज्यादा खोलकर प्रस्तुत नहीं करूंगा-

व्यापक प्रदूषण, अधिक भीड़-भाड़ तथा इससे जुड़ी बीमारियाँ, शुद्ध पेयजल संकट, अपर्याप्त आवास एवं स्वास्थ्य सुरक्षा तथा ऊर्जा संरक्षण एवं पर्यावरणीय दृष्टिकोण से पूरी तरह अकुशल एक परिवहन व्यवस्था।

पर्यावरणवादी इन समस्याओं के साथ सक्रिय रूप से जुड़े रहने और हमारे शहरों और कस्बों को रहने लायक बनाने के प्रयास में गाँधी से सहायता प्राप्त नहीं कर सकते है। जिन्होंने अपने जीवन एवं कार्य में शहरों से साधारणतया अपना मुँह मोड़ लिया।

शहरों की तरह वनक्षेत्र भी गाँधी के लिए आकर्षक नहीं है। गत वर्ष परिसर व्याख्यान में बिट्ट सहगल ने अपने अनुभव से यह स्पष्ट किया कि कुछ पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं के पास प्रकृति संरक्षण का समय नहीं है। उन्होंने इसे अभिजात्य सनक का नाम दे रखा है। गाँधी किसी भी हाल में इसके प्रति उदासीन थे। यह सत्य है कि शाकाहारवाद का उनका प्रयास और अहिंसक गाँधी सभी के जीवन के प्रति सम्मान रखते थे। फिर भी सभी तरह से वह अविकृत प्रकृति की छटा को देखने शायद ही कभी गए हो। हो सकता है कि शायद यह उनके संयमित व्यावहारिक मिज़ाज का हिस्सा है जिसके कारण गाँधी में कोई रूमानियत नहीं थी। यह भी रोचक है कि दोनों व्यक्तियों में से नेहरू ज्यादा रूमानी थे तथ भारतीय प्राकृतिक सुंदरता के गहरे प्रशंसक थे। नेहरू की अंतिम इच्छा एवं वसीयत में उनकी भारत की मिट्टी, पहाड़ों और नदियों के प्रति उनकी प्रार्थना में एक रहस्यात्मक विशेषता निकट प्रतीत होती है।

गाँधी और नेहरू-दोनों के निकट मित्र ब्रिटिश शिक्षाविद् एवं लेखक एडवर्ड थाम्पसन ने इस वैषम्य को दिखाने के लिए एक किस्सा बताया। १९३७ में ब्रिटिष सरकार के विभिन्न प्रदेशों में जब कांग्रेस मंत्रिमंडलों को बनाया गया तब थाम्पसन ने राष्ट्रवादी नेताओं को भारत के लगातार लुप्त हो रहे जानवरों के प्रति रूचि दिखाने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने बताया ‘जानवर लगातार या तो लुप्त हो रहे थे या खतरे की सूची में थे’। जब उन्होंने इस समस्या को गाँधी के सामने रखा तो महात्मा ने मज़ाकिया लहज़े में कहाः

हमारे पास हमेशा ब्रिटिश शेर रहेंगे।

उसके बाद थाम्पसन की उदासी को महसूस करते हुए गाँधीजी ने उन्हें जवाहरलाल से इस बारे में कहने के लिए कहा,’ एक वे हैं जो इसमें रूचि दिखायेगें।’ वास्तव में नेहरू ने ऐसा ही किया, उन्होंने कांग्रेसशासित प्रदेशों के प्रधानमंत्रियों (जैसा उस समय इन्हें पुकारा जाता था) से इस मुद्दे के बारे में अपनी बात रखी। बाद में नेहरू थोड़े गर्व के साथ थाम्पसन को सूचित करने में समर्थ हुए कि मद्रास के प्रधानमंत्री के नाते सी. राजगोपालाचारी का अंतिम अधिनियम पेरियार प्रकृति संरक्षण को स्थापित करने वाला था।

इसलिए प्रकृतिप्रेमी और वे लोग जो शहरी पर्यावरण पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते है महात्मा गाँधी से कुछ हद तक ही सीधी मदद की गुंजाइश कर सकते है। लेकिन वन क्षेत्र और शहरों के मध्य एक व्यापक भू-भाग ७,००,००० गाँवों का घर है, जिसके बारे में गाँधी प्रायः और भावपूर्ण तरीके से बोलते थे। पर्यावरणीय रूप से विध्वंसक प्रोजेक्ट के विरोध में या कृषि अर्थव्यवस्था तथा इसके प्राकृतिक पर्यावरण के बीच संबंधों की पुनर्प्रतिष्ठा करने में गाँधी के जीवन और संदेश के प्रत्यक्ष क्रियान्वयन की गुंजाइश ज़्यादा है। चाहे शहर में, देश में या वन में रहें हम भी बिना अपवाद के प्रयास कर सकते हैं और अपनी जीवन शैली को व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुरूप संभव्य सीमा तक सादगीपूर्ण बना सकते हैं। साथ ही उस व्यक्ति से सीख सकते हैं जिसने अपनी जिदंगी धरती पर अपनी कुछ आवश्यकताओं के साथ गुज़ारी तथा अपने लिए कुछ ही आवश्यकताएँ रखी। यह भी सीख सकते हैं कि पर्यावरणीय आंदोलन हमेशा महात्मा गाँधी की ओर लौटता है और ठीक उसी समय उनसे आगे भी जाता है।

(अंग्रेज़ी से अनुवादः शम्भू जोशी)

http://pratilipi.in/2009/07/gandhi-and-environmentalism-ramachandra-guha

पर्यावरण आदोलन की चुनौतियाँ

भारत का पर्यावरण आंदोलन इस देश की अन्य बहुत-सी बातों की तरह ही विरोधाभासों एवं जटिलताओं में संतुलन बनाकर चलने की दरकार रखता है : अमीर और गरीब के बीच संतुलन, मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन। वैसे भारत का पर्यावरण आंदोलन एक मानी में विशिष्ट है और इसी विशिष्टता में इसके भविष्य की कुंजी है। अमीर देशों के पर्यावरण आंदोलन तब शुरू हुए, जब वे धन-संपत्ति के निर्माण काल से गुजर चुके थे और अपशिष्ट निर्माण के काल से गुजर रहे थे।

अतः वे अपशिष्ट नियंत्रण की बात करने लगे लेकिन वे अपशिष्ट निर्माण के ढाँचे को ही परिवर्तित करने की स्थिति में नहीं थे। इसके विपरीत भारत में पर्यावरण आंदोलन धन-संपत्ति के निर्माण काल के दौरान ही विकसित हो रहा है, लेकिन जबर्दस्त असमानता और गरीबी के बीच। तुलनात्मक रूप से गरीबों के इस पर्यावरणवाद में परिवर्तन के सवाल के जवाब पाना असंभव है, जब तक कि सवाल ही न बदल दिया जाए।

अब जरा इस आंदोलन के जन्म एवं विकास पर गौर करें। इसकी शुरुआत हुई 70 के दशक के आरंभिक वर्षों में, पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन में इंदिरा गाँधी के प्रसिद्ध वाक्य से कि ‘गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषणकर्ता है।’ लेकिन इसी दौरान हिमालय में चिपको आंदोलन से जुड़ी महिलाओं ने हमें बता दिया कि दरअसल गरीब अपने पर्यावरण की चिंता भी करते हैं। दूसरे शब्दों में गरीबी नहीं, दोहक और शोषक अर्थव्यवस्थाएँ सबसे बड़ी प्रदूषणकर्ता हैं।

अस्सी के दशक में संस्थागत ढाँचा खड़ा कर पर्यावरण विभाग का गठन किया गया। तब मुख्य उद्देश्य था वनों की कटाई रोकना। 1980 का वन संरक्षण अधिनियम हरियाली को बचाने एक निष्ठुर उपाय था। इसके तहत केंद्रीय मंत्रालय की स्वीकृति के बिना वन भूमि का एक हैक्टेयर भी गैर-वन उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था। आंदोलन के इस दौर में देश ने पर्यावरण संरक्षण के लिए अधिकारों का केंद्रीकरण कर दिया।

नब्बे के दशक में इन कार्यक्रमों व संस्थानों का काम आगे बढ़ा। इस दशक में मुख्य लक्ष्य था परिवर्तन को लागू करना व उसका प्रबंधन करना लेकिन इसे लागू करने के लिए समय ही नहीं मिला। इस दशक में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार तीव्र हुई और उदारीकरण का दौर चला, जिसमें जल एवं वायु प्रदूषण तथा विषैले अपशिष्ट संबंधी नई एवं महत्वपूर्ण समस्याएँ उभरकर सामने आईं। तीव्र आर्थिक परिवर्तन के चलते पर्यावरण का संकट बढ़ गया। नई, जटिल समस्याओं को नए, सुलझे हुए समाधानों की तलाश थी। जर्जर हो रहे औपचारिक संस्थानों की जगह नए ढाँचों और संगठनों ने ली।
एक तरफ थी सक्रिय (कभी-कभी अति-सक्रिय होने का आरोप झेलती) न्यायपालिका, जो पर्यावरणीय सरोकारों का प्रबंधन अपने हाथों में लेने लगी। पर्यावरण सुधार हेतु हजारों नागरिकों द्वारा दायर की जाने वाली याचिकाओं ने उसका उत्साहवर्द्धन किया। अदालतों को जल्द ही यह अहसास हो गया कि वे आदेश पारित तो कर सकती हैं लेकिन उन पर अमल नहीं कर सकतीं। सो उन्होंने अधिकार प्राप्त समितियों का गठन किया, जो अदालती फैसलों के अमल पर निगरानी रखें। दूसरी तरफ मीडिया का समर्थन प्राप्त नागरिक समूह पर्यावरण के सक्रिय रखवाले एवं प्रबंधक बन गए। औपचारिक संस्थानों का काम भी इन्होंने अपने हाथों में ले लिया। विकास से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के आकलन में उद्योग व नौकरशाही की साँठगाँठ से होने वाले भ्रष्टाचार से निपटने के लिए नागरिक समाज आगे आया। जन-सुनवाइयों की अवधारणा ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया।

आज हमारे सामने दो मुख्य चुनौतियाँ खड़ी हैं। एक ओर तो प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की सघनता बढ़ रही है, जिससे अधिक संघर्ष व अधिक पर्यावरण ह्रास हो रहा है। दूसरी ओर वे गरीब लोग और भी अधिक हाशिए पर चले गए हैं, जो पर्यावरण पर ही जीते हैं और जिनके लिए पर्यावरण ही आर्थिक परिवर्तन लाने का जरिया है। यूँ विश्व भर में पर्यावरणीय सरोकार जनांदोलनों की ही उपज रहे हैं। इन आंदोलनों की वजह से उपजे राजनीतिक दबाव के चलते ही पहले कानून बने और फिर इन्हें लागू करने के लिए संस्थान। हमारे यहाँ जनांदोलन से पहले कानून और संस्थान बन गए लेकिन ये कारगर नहीं हो पाए। अतः भारत में पर्यावरण आंदोलन का काम मुख्यतः दबाव निर्मित करना है ताकि सरकार स्वयं द्वारा बनाए गए कानूनों व नियमों को ठीक से लागू कराए।
पर्यावरण आंदोलन की ताकत है सूचना, जन-समर्थन, ज्ञान आधारित निर्णय प्रक्रिया व संपर्क तंत्र और ये ही औपचारिक संस्थानों की कमजोरी हैं। हम आंदोलन की इस ताकत का समावेश शासकीय संस्थानों में कैसे कर सकते हैं? पर्यावरण आंदोलन के समक्ष अगली बड़ी चुनौती यही है।

सुनिता नारायण

(लेखिका विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की निदेशक हैं।)

 पर्यावरण आंदोलन पर सुनिता नारायण का लेख…

http://hindi.webdunia.com/india-foreign-tourism/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%81-107060500032_1.htm