पर्यावरण और उसका हनन

जीवन की उत्पति अस्तित्व व विकास हेतु आवश्यक तथा अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराने वाला ‘पृथ्वी‘ ब्रह्मांड का अब तक का एकमात्र ज्ञात ग्रह है। जीवन की उपस्थिति ही ब्रह्मांड में पृथ्वी की विशिष्टता संस्थापित करती है। पर्यावरण अथवा तकनीकी शुद्ध रूप में प्राकृतिक पर्यावरण सभी सजीवों तथा निर्जिवों का वह संयोजन है जो पृथ्वी पर विद्यमान है। सजीव जैसे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी व निर्जिव जैसे जल, वायु, मृदा, तापमान आदि प्राकृतिक पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटक हैं। पृथ्वी का पर्यावरण पिछले वर्षों में एक चिंता का विषय बन कर उभरा है। निरंतर हो रहा प्रदूषण इसका मुख्य कारण है। प्राकृतिक पर्यावरण एक संतुलित, संरचित, जटिल तथा सक्रिय तन्त्र व प्रक्रिया है। पर्यावरण प्रदूषण इसकी संरचना में आने वाला वह हानिकारक परिवर्तन है जो इसके दूसरे घटकों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है अथवा उनके गुणधर्मों को कम कर देता है। मानव की विकास करने की प्रवृति उसे उपलब्ध संसाधनों के अधिकतम उपभोग हेतु विवश करती है। यही अति-उपभोग परिणित होकर ‘तितली प्रभाव’ (Butterfly effect) को जन्म देता है जिसमें किसी विशाल जटिल व सक्रिय तन्त्र के एक भाग में आने वाला परिवर्तन, जो कि प्रारम्भ में लघु व अप्रभावी प्रतीत होता है, प्रभावों की एक ऐसी श्रृखंला का निर्माण करता है जो वृहद स्तर के अप्रत्याशित परिणामों में बदल जाती है। वर्तमान समय में पर्यावरण के प्रत्येक घटक में मानवीय हस्तक्षेप स्पष्ट है। नदियाँ, झील, तालाब, आदि ना केवल प्रदूषित होकर उपयोग योग्य नहीं रहे हैं वरन् वे विलुप्त भी हो रहे है। ग्रीन-हाउस गैसें- जलवाष्प, कार्बन-डाई-आक्साइड, मिथेन, नाईट्रस-आक्साइड तथा ओजोन की सान्द्रता वातावरण में बढ़ रही है। सयुंक्त राष्ट्र संघ ने विश्व के राष्ट्रों को ‘कार्बन उत्सर्जन’ कम करने का सन्देश दिया है। भारी धातुओं से युक्त औद्योगिक प्रदूषक कृषि योग्य भूमि को बंजर व पीने योग्य पानी को विषैला बना रहे हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में स्थित ‘ओजोन परत’ जो पृथ्वी पर जीवनके लिये आवश्यक है, खत्म होने की कगार पर है। वाहन से निकले ‘सस्पैंडिड पारटीकुलेट मैटर‘ सर्दियों में के साथ ‘धुंध’ का निर्माण करते है, जो विशेषत: महानगर वासियों में विभिन्न सांस सम्बन्धी रोग  उत्पन्न करते हैं।
पृथ्वी का वन-क्षेत्र तेजी से घट रहा है। जंगल और जल-संसाधनों के खत्म होने के कारण वन्य व जलीय जीव जन्तुओं व पेड़-पौधों की प्रजातियाँ अत्यंत ही अप्रत्याशित दर से लुप्त होती जा रही है। पर्यावरण-क्षरण जारी है तथा इसी क्षरण को रोकने की प्रक्रिया व सबंधित क्रिया कलापों को ‘पर्यावरण संरक्षण‘ का नाम दिया गया है। जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान वृद्धि, पर्यावरण प्रदूषण, जैव-विविधता का नष्ट होना आदि परस्पर संबंधित विषय हैं। पर्यावरण के निरंतर क्षय को रोकने तथा इसके कारण भविष्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं से निपटने के लिए वैश्विक व राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रकार की रणनीतियाँ तैयार व कार्यान्वित की जा रही हैं। पर्यावरण प्रदूषण,जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिंग, वर्तमान समय में ‘ग्लैमराईज्ड बजवर्ड’  बन गऐ हैं। जो भी इनकी बात करता है वह बुद्धिजीवी व आधुनिक आंका जाता है। तथा वे लोग जिन्होनें पर्यावरण के नुकसान के अतिरिक्त कुछ नहीं किया है, भी इन विषयों पर बहस करते हैं।

5 जून सन् 1972 को ‘युनायटैड नेशंस कान्फ्रैन्स आन हयूमैन एनवायरनमैण्ट‘ (United Nations Conference on Human Environment) आरम्भ हुई थी तथा इसी तिथि को ही सन् 1973 में प्रथम विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया था। सयुंक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रत्येक वर्ष को किसी ना किसी विशेष रूप में मनाऐ जाने की परंपरा है। वर्ष 2015 को अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष घोषित किया है। वर्ष 2013 को अंतर्राष्ट्रीय जल संरक्षण वर्ष घोषित किया गया था। वर्ष 2011 को अंतर्राष्ट्रीय वन वर्ष घोषित किया गया था। 2011 से 2020 का दशक भी ‘जैव- विविधता दशक’  के रूप में मनाया जा रहा है। जैव विविधता का क्षरण गम्भीर चिंता का विषय इसलिए है क्योंकि मानवीय आवश्यकताएं व पसंद विविध तथा परिवर्तनशील है। पेड़, पशु अथवा सूक्ष्मजीवों की एक प्रजाति मनुष्य की सभी आवश्यकताएं पूर्ण करने में अक्षम हैं। विभिन्न प्रकार के सजीव मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं तथा यह मनुष्य के लिए जैव-विविधता की महत्वपूर्णता को रेखांकित करता है। यदि वर्तमान दर पर पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त होती रही तो सम्पूर्ण मानवता सकंट में पड़ जाएगी। उपरोक्त सभी कारणों से ही ‘जैव विविधता’ एक सघन चिंतन का विषय बनी हुई है।

15 जुलाई 2009 को पाकिस्तान में 300 लोगों के समूह ने 541176 वृक्ष लगाकर ‘गिनीज वल्र्ड रिकार्ड‘ बनाया। यह किसी भी मानव समुह द्वारा 24 घंटे में लगाए गए सर्वाधिक वृक्षों की संख्या है। इसी प्रकार से फिलीपिन्स में 24 फरवरी 2011 को 7000 लोगों ने, 15 मिनट में 64096 वृक्ष लगाए। यह एकसाथ लगाए गए सर्वाधिक वृक्षों के विश्व कीर्तिमान के रूप में ‘गिनीज बुक‘ में दर्ज है।  5 जून सन् 1988 को भारत सरकार द्वारा खेजड़ी वृक्ष पर 60 पैसे मूल्य की डाक टिकट जारी की गई। मरूस्थलीय पारिस्थितीकी में खेजड़ी वृक्ष की उपयोगिता एवं महत्वपूर्णता इससे सिद्ध होती है।  जर्मन रसायनविद् हैंस वोन पैकमैन ने सन् 1898 में पोलिथीन की खोज की थी तथा यह उत्पाद आधुनिक विश्व को दुर्घटना की ओर ही ले जा रहा है। लेकिन अब इसको बन्द करने की आवश्यकता है। इस प्रतिबन्ध को और अधिक कड़ाई से लागू करने तथा पॉलिथीन के विकल्प उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है।  संयुक्त राष्ट्र संघ तथा ‘इन्टरनेशनल यूनियन फार द कंजरवेशन ऑफ नेचर एण्ड नेचुरल रिर्सोसिज‘ (International Union for the Conservation of Nature and Natural Resources) (आई. यु. सी. एन.) को जैव विविधता व पर्यावरण संरक्षण में काम कर रहे हैं।
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पर्यावरण और उसका प्रदूषण

पर्यावरण शब्द दो शब्दों परि+आवरण से मिलकर बना है जिसका अर्थ परि=चारों ओर, आवरण=घेरा, यानि हमें चारों ओर से घेरने वाला पर्यावरण ही है। प्राचीन काल में मानव बहुत सीधा-सादा जीवन व्यतीत करता था, उस समय पर्यावरण के बारे में इतना सब नहीं समझता था लेकिन मानव ने जब से उत्पादन-क्षमता बढ़ाई है, विश्व में पर्यावरण की एक नई समस्या उभरकर सामने आई है। मनुष्य ने पर्यावरण को जब तक अपने हिस्सेदार की तरह समझकर अनुकूल रखा तो लाभ भी लिया। लेकिन जब से मानव ने पर्यावरण के साथ अल्पावधि लाभ हेतु इसके साथ छेड़छाड़ की और अदूरदर्शिता से प्राकृतिक सम्पदाओं का उपयोग किया और उसे नष्ट किया है तभी से वातावरण में अवांछित परिवर्तन हुए जिसके बारे में मानव ने कभी सोचा नहीं और यह हानि उठानी पड़ी है।

मानव ने बिना सोच-विचार के अपनी सुविधा हेतु मोटर-वाहनों का प्रयोग, औद्योगीकरण, कृषि, जनसंख्या वृद्धि, बढ़ती आवश्यकताएँ, वनों की कटाई, वन्य जीवों का शिकार, प्लास्टिक उद्योग, परमाणु परीक्षण आदि से वातावरण में अनचाहे परिवर्तन हुए हैं और हमारी भूमि, जल व वायु के भौतिक, रासायानिक व जैविक गुणों में ऐसा परिवर्तन हुआ है जो कि पूरी मानव सभ्यता के लिए अलाभकारी सिद्ध हुआ है।

आज यदि हम पर्यावरण की सच्चाई से जाँच करें तो हमें सच का पता लग जायेगा कि मनुष्य ने जिस गति से मशीनीकरण के युग में पैर रखा है तभी से हमारे वातावरण पर बुरा प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। हमारा देश भारत जहाँ पुराने समय में प्रकृति का स्वच्छ स्थान माना जाता था साथ ही प्रकृति की हम पर अपार कृपा थी। यहाँ पर पेड़-पौधे, वन्य जीव काफी संख्या में पाए जाते थे। वनों का क्षेत्रफल भी अधिक था लेकिन मानव ने अपने स्वार्थ से वशीभूत  होकर अपने हाथों से जिस बेरहमी से प्रकृति को नष्ट किया है उसी से प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न हुई है। मानव के क्षणिक लाभ के आगे हमारी पवित्र गंगा-यमुना नदी भी नहीं बच पायी। अतः कहा जा सकता है कि मानव ने जिस तरह प्रकृति या पर्यावरण के ऊपर अपने क्रूर हाथ चलाए हैं उससे प्रकृति तो नष्ट हुई है परन्तु मानव भी सुरक्षित नहीं रह सका। मानव ने अपने क्रूर हाथों से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। यह सच है कि मानव जीवन-हेतु साफ-सुथरा पर्यावरण अति आवश्यक है और पर्यावरण प्रकृति का अनुशासन है, जब यह अनुशासन भंग होगा तो सन्तुलन बिगडे़गा और सन्तुलन बिगड़ने पर प्रदूषण उत्पन्न होगा।

प्रदूषण

 पर्यावरण के अंगों जल, थल, नभ, वायु आदि में ऐसा परिवर्तन जो कि उपरोक्त अंगों के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में परिवर्तित कर दें, प्रदूषण कहलाता है। प्रदूषण निम्न प्रकार के होते हैं-

1.    वायु प्रदूषण,
2.    जल प्रदूषण,
3.    भू प्रदूषण या थल प्रदूषण,
4.    ध्वनि प्रदूषण,
5.    परमाणु विखण्डन या नाभिकीय प्रदूषण।

पर्यावरण संरक्षण पर न्यायपालिका के कुछ निर्णय

पर्यावरण संरक्षण में न्यायपालिका की भूमिका, भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में न्यायपालिका द्वारा महत्वपूर्ण पहल की गई है। जीवन का अधिकार जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 21 में है, की सकारात्मक व्याख्या करके, न्यायपालिका ने इस अधिकार में ही ‘स्वस्थ्य पर्यावरण के अधिकार’ को निहित घोषित किया है। सामाजिक हित, विशेषकर पर्यावरण के संरक्षण के प्रति, न्यायपालिका की वचनबद्धता के कारण ही ‘जनहित मुकद्दमों ’ का विकास हुआ। भारतीय न्यायपालिका ने 1980 से ही पर्यावरण-हितेषी दृष्टिकोण अपनाया है। न्यायपालिका ने विविध मामलों में निणर्य देते हुए यह स्पष्टï किया है कि गुणवतापूर्ण जीवन की यह मूल आवश्यकता है कि मानव स्वच्छ पर्यावरण में जीवन व्यतीत करे।
पर्यावरण के अधिकार को न्यायिक मान्यता देहरादून की चूने की खान के मामले (ग्रामीण मकदमेबाजी बनाम उत्तर प्रदेश) में 1987 में दी गई, तथा 1987 में ही श्रीराम गैस रिसाव के मामले (एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ) में इस बात पर पुन: बल दिया गया। न्यायपालिका ने अनेक ऐसे मामलों की सुनवाई भी की है जिनमें पर्यावरण के लक्ष्यों तथा विकास की आवश्यकताओं में तालमेल बैठाया गया। अधिकांश मामलों में न्यायपालिका का विचार रहा है कि हालॉकि विकास के महत्व को गौण स्थान नहीं दिया जा सकता, फिर भी पर्यावरण की किमत पर विकास को तवज्जों नही दी जा सकती, भले ही इस प्रक्रिया में अल्पकालीन हानि हो जैसे कुछ नौकरियों या राजस्व की हानि आदि। पर्यावरण संरक्षण पर न्यायपालिका के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय निम्नलिखित है :

  •  देहरादून की चूना खान का मामला, 1987

इस मामले का संबंध दून घाटी में चूने की खानों द्वारा पर्यावरण को हो रहे गंभीर खतरे से था। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि उन सभी खानों में कार्य बंद कर दिया जाए जहां वे खतरनाक स्थिति में थी, फिर चाहे ऐसा करने से खान मालिकों और खानकर्मियों को आर्थिक हानि ही क्यों न हो। ऐसा करना जनसाधारण केा स्वस्थ पर्यावरण में रहने के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए आवश्यक था चाहे इसके लिए कोई भी मूल्य क्यों न चुकाना पडे।

  •  श्रीराम गैस रिसाव मामला, 1987

श्रीराम गैस रिसाव मामले में <यायालय ने आदेश दिया कि उस जोखिम भरे कारखाने को तुरंत बंद किया जाए जिसमें गैस रिसाव के कारण एक कर्मी की मौत हो गई तथा अन्य लोगों का जीवन संकट में पड़ा। न्यायालय ने कहा कि राज्य के पास अधिकार है कि जोखिम-भरी औद्योगिक गतिविविधयों पर रोक लगा सके, ताकि जनसाधारण के स्वक्वछ पर्यावरण में रहने के अधिकार को सुनिश्चित किया जा सके। इस मामले में न्यायालय ने पूर्ण दायित्व के सिद्धांत का विकास किया ताकि अनुक्वछेद 21 की व्याख्या के अनुसार मुआवजा दिया जा सके। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी कहा कि जीवन के अधिकार में प्रदूषण के जोखिम से पीडित व्यक्तियों को मुआवजा माँगने का अधिकार भी निहित है।

  • गंगा प्रदूषण मामला, 1988

गंगा प्रदूषण मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक चमड़े के उद्योगों को जो गंगा के तट पर प्रदूषण फैला रहे थे यह आदेश दिया कि वे या तो प्रदूषण नियंत्रण  स्थापित करें या फिर अपने कारखाने बंद कर दें। न्यायालय ने गंगा के किनारे स्थित लागभग 5000 उद्यमों को आदेश दिया कि वे बहने वाले मल को स्वक्वछ करने वाले संयंत्र  लगाएं तथा प्रदूषण को रोकने वाले उपक्रमों की व्यवस्था भी करें।

  • पत्थर पीसने वालों का मामला, 1992

इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में पट्टथर पीसने वाली इकाइयों को बंद कर, हरियाणा के पट्टथर पीसने वाले क्षेत्र में स्थापित करने का आदेश दिया। न्यायालय के अनुसार पर्यावरण की गुणवत्ता इस सीमा तक नष्ट करने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि वह उस क्षेत्र में निवास करने वालों के स्वास्थय के लिए खतरनाक बन जाए।

  • पर्यावरण जागरूकता मामला, 1992

इस मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने देश में पर्यावरणीय शिक्षा और जागरूकता का प्रासर करने के निर्देश दिये। इन उपायों में स्कूलों में कक्षा एक से बाहरवीं तक पर्यावरण को अनिवार्य विषय के रूप में पढाने की व्यवस्था, विश्वविद्यालयों में एक विषय के रूप में पर्यावरण शिक्षा का प्रावधान, सिनेमाघरों में पर्यावरण विषय पर संदशों का प्रसार-प्रचार तथा दूरदर्शन एवं रेडियों पर पर्यावरण कार्यक्रमों के प्रसारण शामिल हैं।

  • दिल्ली वाहन प्रदूषण मामला, 1994

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दूरगामी निर्देश देकर केंद्र सरकार से कहा है कि वह वाहनों द्वारा फैलाए जाने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए प्रभावी उपय करें। इन उपायों में शामिल थे सीसा-मुक्त  पर्यावरण-हितैषी पैट्रोल का प्रवधान सार्वजनिक परिवहन के वाहनों के अनिवार्य रूप से सी.एन.जी  ईंधन पर चलाया जाना, और दिल्ली की सडक़ों पर 15 वर्ष से अधिक पुराने वाहनों के चलाने पर प्रतिबंध।

  • ताजमहल का मामला, 1997

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि ताजमहल के आस-पास 10,400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र  में किसी कोयला आधारित उद्योग की अनुमति नहीं होगी। प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से कहा गया कि वे या जो स्वच्छ ईधन का प्रयोग करें या फिर सुरक्षित क्षेत्र से बाहर अपने कारखाने हस्तांतरित करेें। केंद्र सरकार और राज्य सरकार केा निर्देश दिया गया कि ताजमहल के आस-पास हरित पट्टी की व्यवस्था करें, और बिना रूकावट के बिजली की आपूर्ति की जाए ताकि डीजल से चलाए जाने वाले जनरेटरों की आवश्यकता न पड़े।

  • दिल्ली की प्रदूषित औद्योगिक इकाइयों की बंदी तथा स्थानांतरण का आदेश, 1996

यह केस एम.सी. मेहता की एक याचिका से 1985 में शुरू हुआ जिसमें कहा गया था कि दिल्ली में 1 लाख से अधिक औद्योगिक इकाइयां वातावरण को प्रदूषित कर रही है जो नागरिकों के स्वास्थ्य को गंभीर खतरा पहुंचा रहें हैं सर्वोक्वच न्यायालय ने याचिका की सुनवाई करते हुए 8 जुलाई, 1996 को अपना निर्णय सुनाते हुए औद्योगिक ईकाइयों को दिल्ली के  पर्यावरण के साथ-साथ आम नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ठहराते हुए 168 बडी प्रदूषणकारी इकाइयों को दिल्ली से स्थानांतरित या बंद करने का आदेश दिया।
उपरोक्त मामलों के अलावा जिन अन्य विषयों पर जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायापालिका ने निर्णय किए उनमें शामिल हैं: नगरों के ठोस मलबे का प्रबंधन, दिल्ली के भूमिगत पानी में होती कमी, कोलकाता में हुगली नदी के साथ स्थापित प्रदूषण फैलानेवाले उद्योगों केा बंद करने, पशुओं के प्रति दया, जनजातीय लोगों तथा मछुआरों के विशेषाधिकार, हिमालय तथा वनों की पारिस्थितिकी व्यवस्था, पारिस्थितिकी पर्यटन, भूमि के प्रयोग के प्रतिमान तथा विकास योजनाएँ इट्टयादि। पर्यावरण संरक्षण की प्रक्रिया में न्यायालय द्वारा दिए गए कुछ महत्त्वपूर्ण मौलिक नियम निम्नलिखित हैं:

  •  प्रत्येक नागरिक को स्वच्छ पर्यावरण में जीने का मौलिक अधिकार है जो संविधान के अनुक्वछेद 21 में दिए गये ‘जीवन जीने के अधिकार’ में निहित है
  •  सरकारी एजेसियाँ पर्यावरणीय कानूनों के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा न करने के लिए वित्तिय या कर्मचारियों की कमी का बहाना नहीं दे सकतीं
  •  प्रदूषणकर्ता द्वारा आदायगी का सिंद्धांत  पर्यावरणीय कानून का एक महत्त्वपूर्ण पहलु है जिसका तात्पर्य है कि प्रदूषणकर्ता न केवल पर्यावरण की क्षतिपूर्ति के लिए बल्कि प्रदूषण से प्रभावित लोगों को हुई हानि की भी भरपाई करेगा।
  •  पूर्ण दायित्व के नियम के अनुसार यदि कोई उद्योग किसी ऐसे खतरनाक व्यवसाय में रत है जिससे लोगों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को खतरा है तब उसका यह पूर्ण दायित्व बन जाता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उस कार्य से किसी केा किसी प्रकार का संकट न हो। यदि उस कार्य से किसी को हानि पहुँचती है तो वह उद्योग उस हानि की पूर्ति के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होगा।
  •  पूर्व सर्तकता या पूर्व चेतावनी सिद्धांत  के अनुसार सरकारी अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि वे पर्यावरणीय प्रदूषण के कारणों की पूर्व कल्पना करें उनसे पर्यावरण की सुरक्षा करेें। यह सिद्धांत उद्योगपतियों पर यह उत्तरदायित्व डालता है कि वे यह स्पष्ट करें कि उनके कार्य पर्यावरणीय दृष्टिकोण से हानिकारक नहीं हैं।
  •  आर्थिक गतिविधियॉं लोगों के स्वास्थ्य तथा जीवन की कीमत पर नही चल सकती। पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता।

1980 तथा 1990 के दशकों में भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जन हित याचिकाओं  का आधिकाधिक प्रयोग हुआ। इस प्रक्रिया में पर्यावरण-समर्थक वकिलों जैसे एम.सी.मेहता तथा न्यायधिशों कुलदीप सिंह तथा कृष्णाअययर का विशेष योगदान रहा। पर्यावरण सुरक्षित रखने के कार्य में, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के आरंभिक क्षेत्राधिकार के संविधान के अनुक्वछेद 32 और 326 को आधार बनाकर महत्त्वपूर्ण उपाय किए गए। इसके अतिरिक्त न्यायालयों ने स्वास्थ्य और स्वच्छ पर्यावरण के मूल अधिकार के क्षेत्र का भी विस्तार किया है।

वन अधिकार अधिनियम, 2006

वन अधिकार अधिनियम (2006), वन संबंधी नियमों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो 18 दिसम्बर, 2006 को पास हुआ। यह कानून जंगलों में रह रहे लोगों के भूमि तथा प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार से जुड़ा हुआ है जिनसे, औपनिवेशिक काल से ही उन्हें वंचित किया हुआ था। इसका उद्देश्य जहां एक ओर वन संरक्षण है वहीं दूसरी ओर यह जंगलों में रहने वाले लोगों को उनके साथ सदियों तक हुए अन्याय की भरपाई का भी प्रयास है। इस कानून के मुख्य प्रावधान निम्न है:

  •  यह जंगलों में निवास करने वाले या वनों पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों की रक्षा करता है
  •  यह उन्हें चार प्रकार के अधिकार प्रदान करता है:
  •  जंगलों में रहने वाले लोगों तथा जनजातियों को उनके द्वारा उपयोग की जा रही भूमि पर उनको अधिकार प्रदान करता है
  •  उन्हे पशु चराने तथा जल संसाधनों के प्रयोग का अधिकार देता है
  •  विस्थापन की स्थिति में उनके पुर्नस्थानापन  का प्रावधान करता है
  •  जंगल प्रबंधन में स्थानीय भागिदारी सुनिश्चित करता है
  •  जंगल में रह रहे लोगों का विस्थापन केवल वन्यजीवन संरक्षण के उद्देश्य के लिए ही किया जा सकता है। यह भी स्थानीय समुदाय की सहमति पर आधारित होना चाहिए11

वन संरक्षण अधिनियम (2006) स्थानीय लोगों का भूमि पर अधिकार प्रदान कर वन संरक्षण को बढ़ावा देता है। यह वन भूमि पर गैर कानूनी कब्जों को रोकता है तथा वन संरक्षण के लिए स्थानीय लोगों के विस्थापन को अंतिम विकल्प मानता है। विस्थापन की स्थिति में यह लोगों का पुर्नस्थानापन का अधिकार भी प्रदान करता है।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2004

पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने दिसम्बर 2004 को राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2004 का ड्राफ्ट जारी किया है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि समस्याओं को देखते हुए एक व्यापक पर्यावरण नीति की आवश्यकता है। साथ ही वतर्मान पर्यावरणीय नियमों तथा कानूनों को वतर्मान समस्याओं के संदर्भ में संशोधन की आवश्यकता को भी दर्शाया गया है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के निम्न मुख्य उद्देश्य रखे गये हैं:

  •  संकटग्रस्त पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण करना
  •  पर्यावरणीय संसाधनों पर सभी के विशेषकर गरीबों के समान अधिकारों को सुनिश्चित करना
  •  संसाधनों का न्यायोचित उपयोग सुनिश्चित करना ताकि वे वतर्मान के साथ-साथ भावी पिढिय़ों की आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सकें
  •  आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों के निर्माण में पर्यावरणीय संदर्भ को ध्यान में रखना
  •  संसाधनों के प्रबंधन में खुलेपन, उत्तरदायित्व तथा भागिदारिता के मूल्यों को शामिल करना

उपरोक्त उद्देश्यों की प्राप्ति विभिन्न संस्थाओं द्वारा राष्ट्रीय राज्य तथा स्थानीय स्तर पर विभिन्न तकनीकों को अपनाकर करने का प्रावधान किया गया है। इनकी प्राप्ति के लिए सरकार, स्थानीय समुदाय तथा गैर सरकारी संगठनों की साझी भागीदारी भी सुनिश्चित की गई है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ड्राफ्ट नीति में कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत भी दिये गये हैं, जैसे:

  •  प्रत्येक मानव को एक स्वस्थ्य पर्यावरण का अधिकार है
  •  सतत विकास का केंद्र बिंदु मानव है
  •  विकास के अधिकार की प्राप्ति पर्यावरणीय जरूरतों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए
  •  प्रदूर्षणकर्ता को पर्यावरण हानि की क्षतिपूर्ती के नियम का पालन करना
  •  स्थानीय संस्थाओं को पर्यावरण संरक्षण के लिए शक्तिशाली बनाना।

राष्ट्रीय जलनीति, 2002

21वीं सदी में जल के महत्व को स्वीकारते हुए जल संसाधनों के नियोजन, विकास और प्रंबधन के साथ ही इसके सदुपयोग का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ‘राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद’ ने 1 अप्रैल, 2002 को राष्ट्रीय जल नीति पारित की। इसमें जल के प्रति स्पष्ट व व्यावहारिक सोच अपनाने की बात कही गई है। इसके कुछ महट्टवपूर्ण बिंदु निम्नलिखित है:

  •  इसमें आजादी के बाद पहली बार नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र संगठन बनाने पर आम सहमति व्यस्त की गई है
  •  जल बंटवारे की प्रक्रिया में प्रथम प्राथमिकता पेयजल को दी गई है। इसके बाद सिंचाई, पनबिजली, आदि को स्थान दिया गया है
  •  इसमें पहली बार जल संसाधनों के विकास और प्रबंध पर सरकार के साथ-साथ सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करने की बात कही गई है
  •  इसमें पहली बार किसी भी जल परियोजना के निर्माण काल से लेकर परियोजना पूरी होने के बाद भी उसके मानव जीवन पर पडने वाले असर का मूल्यांकन करने को कहा गया है
  •  जल के बेहतर उपयोग व बचत के लिए जनता में जागरूकता बढ़ाने एवं उसके उपयोग में सुधार लाने के लिए पाठयक्रम, पुरस्कार आदि के माध्यम से जल संरक्षण चेतना उत्पन्न करने की बात कही गई है

मानव जीवन के लिए जल के अति महट्टव को देखते हुए, पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने और सभी प्रकार की आर्थिक एवं विकासशील गतिविधियों के लिए और इसकी बढ़ती कमी को ध्यान में रखते हुए इसका उचित प्रबंधन तथा न्याय संगत उपयोग करना अनिवार्य हो गया है। राष्ट्रीय जल नीति की सफलता पूर्णत: इसमें निहित सिद्धांतों एवं उद्देश्यों पर राष्ट्रीय सर्वसम्मित तथा वचनबद्धता बनाए रखने पर निर्भर करेगी ।

जैव-विविधता संरक्षण अधिनियम, 2002

भारत विश्व में जैव-विविधता के स्तर पर 12 वें स्थान पर आता है। अकेले भारत में लगभग 45000 पेड-पौधों व 81000 जानवरों की प्रजातियां पाई जाती है जो विश्व की लगभग 7.1 प्रतिशत वनस्पतियों तथा 6.5 प्रतिशत जानवरों की प्रजातियों में से है। जैव-विविधता संरक्षण हेतु केंद्र सरकार ने 2000 में एक राष्ट्रीय जैव-विविधता संरक्षण क्रियान्वयन योजना शुरु की जिसमें गैर सरकारी संगठनों, वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों तथा आम जनता को भी शामिल किया गया। इसी प्रक्रिया में सरकार ने जैव विविधता संरक्षण कानून 2002 पास किया जो इस दिशा में एक महट्टवपूर्ण कदम है। वर्ष 2002 में पारित इस कानून का उद्देश्य है-जैविक विविधता की रक्षा की व्यवस्था की जाए उसके विभिन्न अंशों का टिकाऊ उपयोग किया जाए, तथा जीवविज्ञान संसाधन ज्ञान के उपयोग का लाभ सभी में बराबर विभाजित किया जाये। अधिनियम में, राष्ट्रीय स्तर पर जैव-विविधता प्राधिकरण बनाने का भी प्रावधान है, राज्य स्तरों पर राज्य जैव विविधता बोर्ड स्थापित करने, तथा स्थानीय स्तरों पर जैव-विविधता प्रबंधन समितियों की स्थापना करने का प्रावधान है ताकि इस कानून के प्रावधानों को ठीक प्रकार से लागू किया जा सके।
जैव विविधता कानून (2002) केंद्रीय सरकार को निम्न दायित्व भी सौंपता है:

  •  उन परियोजनाओं का प्रर्यावरणीय प्रभाव जांचना जिनसे जैव विविधता को हानि पहुचने की आशंका हो
  • जैव तकनीकि से उत्पन्न प्रजातियों के जैव विविधता तथा मानव स्वास्थ्य पर पडऩे वाले नकाराट्टमक प्रभावों के लिए नियंत्रण तथा उपाय सुनिश्चित करना
  • स्थानीय लोगो की जैव विविधता संरक्षण की परम्परागत विधियों की रक्षा करना

जैव विविधता अधिनियम (2002) जैव विविधता संरक्षण सुनिश्चित करने की दिशा में एक महट्टवपूर्ण कदम है।
यह सरकार के साथ-साथ आम लोगों की भागिदारिता भी सुनिश्चित करता है। यह सरकार को नितिगत, संस्थागत तथा वित्तिय अधिकार प्रदान करता है। साथ ही यह सरकार को जैव विविधता की परम्परागत तकनीकों का सम्मान तथा उनका संरक्षण करने का दायिट्टव भी सौंपता है।

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986

संयुक्त राष्ट्र का प्रथम मानव पर्यावरण सम्मेलन 5 जून, 1972 में स्टाकहोम में संपन्न हुआ। इसी से प्रभावित होकर भारत ने पर्यावरण के संरक्षण लिए पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 पास किया। यह एक विशाल अधिनियम  है जो पर्यावरण के समस्त विषयों केा ध्यान में रखकर बनाया गया है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वातावरण में द्यातक रसायनों की अधिकता को नियंत्रित करना व पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषण मुक्त रखने का प्रयत्न करना है। इस अधिनियम में 26 धाराएं है जिन्हें 4 अध्यायों में बाँटा गया है। यह कानून पूरे देश में 19 नवम्बर, 1986 से लागू किया गया। अधिनियम की पृष्ठभूमि व उद्द्श्यों के अंतर्गत शामिल बिंदुओं के आधार पर सारांश में अधिनियम के निम्न उद्दश्यों हैं:

  •  पर्यावरण का संरक्षण एवं सुधार करना
  •  मानव पर्यावरण के स्टॉकहोम सम्मेलन के नियमों को कार्यान्वित करना
  •  मानव, प्राणियों, जीवों, पादपों को संकट से बचाना
  •  पर्यावरण संरक्षण हेतु सामान्य एवं व्यापक विधि निर्मित करना
  •  विद्यमान कानूनों के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण प्रधिकरणों का गठन करना तथा उनके क्रियाकलापों के बीच समन्वय करना

क मानवीय पर्यावरण सुरक्षा एवं स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था करना। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) एक व्यापक कानून है। इसके द्वारा केंद्र सरकार के पास ऐसी शक्तियां आ गई हैं जिनके द्वारा वह पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण व सुधार हेतु उचित कदम उठा सकती है। इसके अंतर्गत केंद्रीय सरकार को पर्यावरण गुणवत्ता मानक निर्धारित करने, औद्योगिक क्षेत्रों को प्रतिबंध करने, दुर्घटना से बचने के लिए सुरक्षाट्टमक उपाय निर्धारित करने तथा हानिकारक तट्टवों का निपटान करने, प्रदूषण के मामलों की जांच एवं शोध कार्य करने, प्रभावित क्षेत्रों का तत्काल निरीक्षण करने, प्रयोगशालाओं का निर्माण तथा जानकारी एकत्रित करने के कार्य सौंपे गए हैं। इस कानून की एक महट्टवपूर्ण बात यह है कि पहली बार व्यक्तिगत रूप से नागरिकों को इस कानून का पालन न करने वाली फैक्ट्रियों के खिलाफ केस दर्ज करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

वन संरक्षण अधिनियम, 1980

भारत सरकार ने वनों के संरक्षण तथा वनों के विकास के लिए वन संरक्षण अधिनियम (1980) पारित किया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वनों का विनाश और वन भूमि को गैर-वानिकी कार्यों में उपयोग से रोकना था। इस अधिनियम के प्रभावी होने के पश्चात कोई भी वन भूमि केंद्रीय सरकार की अनुमति के बिना गैर वन भूमि या किसी भी अन्य कार्य के लिए प्रयोग में नहीं लाई जा सकती तथा न ही अनारक्षित की जा सकती है। आबादी के बढने तथा मानव जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों का कटना स्वाभाविक है। अत: ऐसे कार्यों की योजनाएँ बनाते समय तथा वनों को काटने हेतु मार्गदर्शिकायें तैयार की गई हैं जिससे वनों को कम से कम नुकसान हो। इन मार्गदर्शिकाओं में निम्न बिंदुओं पर अधिक ध्यान दिया गया है:

  •  वन सबंधी योजनाएँ इस प्रकार हो ताकि वन संरक्षण को बढावा मिले
  •  वनों की कटाई जहाँ तक संभव हो रोका जाना चाहिए
  •  पशुओं के लिए चारागाहों को ध्यान रखना चाहिए व चारे के उट्टपादन हेतु विशेष प्रावधान किया जाने चाहिए
  •  कुछ समय के लिए वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिए ताकि इन हलाकों में पुन:पेड-पौधे उग सकें। पहाडों, जल क्षेत्रों, ढलान वाली भूमियों पर वनों को पूरी तरह से संरक्षित किया जाना चाहिए।

देश की स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रीय वन नीति (1952) घाषित की गई लेकिन वनों के विकास पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। 1970 के दौरान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण के प्रति चेतना की जागृति का विकास होने से वन संरक्षण को भी बल मिला। वन संरक्षण अधिनियम (1980) का इस दिशा में विशेष योगदान रहा। सन् 1951 से 1980 के बीच वन भूमियों का अपरदन 1.5 लाख हैक्टेयर प्रति वर्ष था जबकि इस अधिनियम के लागू होने के पश्चात भूमि का अपरदन 55 हजार हैक्टेयर रह गया है। इस अधिनियम को अधिक प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने के लिए इसमें वर्ष 1988 में संशोधन किया गया।

वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम, 1972

कृषि, उद्योगों और शहरीकरण से वनों का काफी कटाव हुआ है। वनों के अधिक कटाव से अनेक वन्य जीव जंतुओं की कई प्रजातियाँ या तो लुप्त हो गई हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं। वन्य जीवन के महत्त्व को ध्यान में रखकर व लुप्त होती प्रजातियों को बचाने के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं। सन 1952 में भारतीय वन्य जीवन बोर्ड का गठन किया गया। इस बोर्ड के अंतर्गत वन्य-जीवन पार्क और अभयारणय बनाए गए। 1972 में भारतीय वन्य जीवन संरक्षण अधिनियमा पारित किया गया। भारत जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की समाप्त होने के खतरे में पडी प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संबंधी समझौते (1976) का सदस्य बना। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन (युनेस्को ) का ‘मानव और जैव मण्डल’ कार्यक्रम भी भारत में चलाया गया और विलुप्त होती विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण के लिए परियोजनाएँ चलाई गईं। सिंह के संरक्षण के लिए 1972 में, बाघ के लिए 1973 में , मगरमच्छ के लिए 1984 में तथा भूरे रंग के हिरण के लिए ऐसी परियोजनाएँ चलाई गईं।
वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम (1972) में लुप्त होती प्रजातियों के संरक्षण की व्यवस्था है तथा इन जातियों के व्यापार की मनाही है। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं:

  •  संकट ग्रस्त वन्य प्राणियों की सूची बनाना तथा उनके शिकार पर प्रतिबंध लगाना
  •  संकटग्रस्त पौधों को संरक्षण प्रदान करना
  •  राष्ट्रीय चिडिय़ाघरों तथा अभयारणयों में मूलभुत सुविधाओं को बनाए रखना तथा प्रबंध व्यवस्था को बेहतर बनाना
  •  लुप्त होती प्रजातियों को संरक्षण देना तथा उनके अवैध व्यापार को रोकना
  •  चिडियाघरों व अभयारण्यों में वंश वृद्घि कराना
  •  वन्य जीवन के लाभो की जानकारी का शिक्षा के माध्यम से प्रचार करना
  •  केंद्रीय चिडियाघर प्राधिकरण का गठन करना
  •  वन्य जीवन परामर्श बोर्ड का गठन, उसके कार्य तथा अधिकार सुनिश्चित करना।4

वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम, (1972) को अधिक व्यावहारिक व प्रभावी बनाने के लिए इसमें वर्ष 1986 तथा 1991 में संशोधन किए गये। वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने के लिए व<य जीवन संरक्षण निर्देशक तथा दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता व चेन्नई में चार उपनिर्देशकों की व्यवस्था की गई है।