सियाराम शर्मा
क्या है जैव तकनीक
जैव तकनीक प्रकृति को जानने, समझने और बदलने का एक भरोसेमन्द तरीका है। यह कोई एक तकनीक न होकर कई तकनीकों का समुच्चय है। जैव रसायन, कोशिका विज्ञान, अनुवांशिकी और जैव विज्ञान के सम्मिलित प्रयासों से इस तकनीक को विकसित किया गया है। इसके अन्तर्गत किसी वनस्पति या जीव के अनुवांशिक गुणों को दूसरे के भीतर प्रतिरोपित किया जाता है। ऐसा जीन बन्दूक के माध्यम से एक का जीन दूसरे की कोशिका में डाल कर किया जाता है या जीन को किसी बैक्टीरिया में प्रतिरोपित कर दूसरी कोशिका को उससे संक्रमित कराकर वांछित परिणाम पाये जाते हैं। आलू के जीन को टमाटर में, मछली के जीन को सोयाबीन में या मनुष्य के जीन को सुअर में प्रतिरोपित किया जा सकता है। यह तकनीक इस धारणा को प्रमाणित करता है कि मानवीय आदेश और कार्य योजना के अनुसार किसी वनस्पति या जीव की आन्तरिक संरचना में बाह्य प्रयासों से परिवर्तन लाया जा सकता है। सबसे पहले कोहेन और बायर ने 1970 में अपने प्रयोगों से इसे संभव कर दिखाया था।
इस जैव तकनीक के माध्यम से वनीला और कोक जैसे कुछ उत्पादों को फैक्ट्री में भी उत्पादित किया जा सकता है या जानवरों के माध्यम से खास तरह की दवाईयाँ विकसित की जा सकती हैं। इस तकनीक के माध्यम से ‘जानवरों का इस तरह से जीन परिवर्तित कर दिया जायेगा कि उससे मनचाहा रसायन तैयार किया जा सके और फिर उसे विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए बेचा जायेगा। ट्रांसजेनिक पशुओं की एक आंशिक सूची मौजूद है, जिनसे मनचाही दवा या दवा के काम आने वाले घटकों का सफलतापूर्वक उत्पादन किया गया है। इस सूची में शामिल हैं – सुअर, जिससे मानव हीमोग्लोबिन बनाया गया। भेड़, जिससे एमिनोएसिड बनाया गया है, जो कुछ लोगों में नहीं पाया जाता । खरगोश से एक ऐसा एन्जाइम बनाया गया है जो एक अनुवांशिक रोग पोम्प डिजीज से ग्र्रस्त लोगों में नहीं पाया जाता।”
जैव तकनीक के पक्ष में किये गए दावे और उसकी सच्चाई
जैव तकनीक के समर्थक इसके पक्ष में बड़े-बड़े दावे करते हैं। सबसे प्रमुख दावा तो यही है कि इस तकनीक के माध्यम से पूरी दूनिया से भूख का साम्राज्य मिटाया जा सकता है। इसके साथ ही यह कि भविष्य में दुनिया के सबसे तेजी से विकसित होने वाले उद्योग में यह परिवर्तित हो जायेगा। इसके माध्यम से मनुष्यों की लाइलाज बीमारियों का उपचार संभव है। इन दावों में कुछ सच्चाई तो है पर आम तौर पर लफ्फाजियाँ हैं। इसी तरह के दावे ‘हरित क्रांति’ ने भी किये थे पर इतिहास ने उसे सही साबित नहीं किया। सिर्फ तकनीकी प्रगति से किसी देश की समस्याएँ हल नहीं हो सकती। सूसन जार्ज के अनुसार जब अमेरिका 1969 में चाँद पर अपने आदमी उतार चुका था, संयुक्त राष्ट्र जनगणना ब्यूरो के अनुसार 1972 में अमेरिका में 10 से 12 मिलियन लोग इसलिए भुखमरी और कुपोषण के शिकार थे कि उनके पास भोजन खरीदने के लिए पैसे नहीं थे।
जैव तकनीक में मानवीय समस्याओं को हल करने की क्षमता अगर अन्तर्निहित है भी तो तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और कॉरपोरेट घराने जो इस क्षेत्र में बड़ी पूँजी लगाने के इच्छुक हैं, ऐसा नहीं होने देंगे। क्योंकि उनका उद्देश्य इस क्षेत्र में लगायी गयी पूँजी से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा और लाभ कमाना होगा। जैव तकनीक से फसलों की ऐसी प्रजातियाँ विकसित की जा सकती हैं जिनमें खादों और कीटनाशकों की जरूरत न हो तथा वे सभी प्रकार की बीमारियों से मुक्त हों। लेकिन इन प्रजातियों के माध्यम से भी वे मुनाफा ही कमाना चाहेंगे। प्राय: पूँजी के साथ जुड़कर तकनीक और भी शोषाणकारी और विनाशक भूमिका अख्तियार कर लेता है। जैव तकनीक पर कब्जे और वर्चस्व के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ एक दूसरे के साथ जबर्दस्त होड़ कर रहीं हैं। एक तरफ अन्तर्राराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान केन्द्र (आई.ए.आर.सी.) और तीसरी दुनिया के कृषि विश्वविद्यालय संसाधनों की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं तो दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस दिशा में शोध और विकास के लिए इफरात पूँजी झोंक कर नेतृत्वकारी भूमिका कायम कर ली है । अत: जैव तकनीक का भविष्य पूरी तरह पूँजी की गिरफ्त में है। अगर इस तकनीक का नियंत्रित ढंग से दुनिया के जनगण के हित में उपयोग किया जा सके तो इसके बेहतर परिणाम हो सकते हैं। लेकिन चिंता इस बात की है कि इस तकनीक की मदद से मुनाफा कमाने की अदम्य लालसा कहीं प्रकृति और पर्यावरण से खिलवाड़ न करने लगे। इससे जुड़े कई नैतिक प्रश्न भी हैं । क्या यह उचित है कि हम पशुओं के शरीर को मानवीय हित की प्रयोगशाला बना दें ? उनके शरीर को फैक्ट्रियों की तरह इस्तेमाल करें ? मनुष्य प्रकृति का जैसे अंग है, पशु-पक्षी भी उसी तरह प्रकृति के हिस्से हैं। अत: हम मनुष्यों को यह हक नहीं है कि अपनी शर्तों पर उनके जीवन की स्वाभाविकता को परिवर्तित कर दें।
जैव तकनीक का प्रभाव
जैव तकनीक के प्रभाव और परिणाम दूरगामी हैं। इसका अनियंत्रित उपयोग प्रकृति, पर्यावरण, मनुष्य, अन्य जीवधारियों और वनस्पतियों पर अत्यन्त दूरगामी और विनाशक प्रभाव डाल सकता है। अत: इस पर लाभ-हानि के दायरे से बाहर निकल कर सोचने और विचार करने की जरूरत है। ”हममें से हर व्यक्ति जैव प्रौद्योगिकी के विश्वव्यापी प्रयोग का हिस्सा है, जिसमें स्थानीय, क्षेत्रीय तथा वैश्विक स्तर पर एक तरफ इससे लाभ उठाने वाले और दूसरी तरफ नुकसान झेलने वाले होंगे। इसके अलमबरदारों द्वारा यह दिखाने की भरपूर कोशिश के बावजूद, कि जैव प्रौद्योगिकी कृषि क्षेत्र में शोध एवं विकास की तार्किक और अनिवार्य दिशा है, वास्तव में यह विकल्पों की एक ऐसी श्रृंखला है, जिसके साथ परिणाम भी जुड़े हुए हैं। इन तकनीकों से पैदा होने वाली सामाजिक, तकनीकी और नैतिक प्रश्नों पर बहस को यह कह कर दबाया जा रहा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी परंपरागत राजनीतिक विमर्श से बाहर की चीजें हैं।
जैव तकनीक द्वारा विकसित खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल जनसाधारण के द्वारा किया जाता है। वह उनके जीवन, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को बहुत दूर तक प्रभावित करता है। अत: जैव तकनीक के बारे में किये गये किसी भी निर्णय को चंद राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और उद्योगपतियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इसके बारे में लिये जाने वाले किसी भी निर्णय में आम लोगों को भी भागीदार बनाया जाना चाहिए। इसके साथ ही इस तकनीक का इस्तेमाल मुनाफे के लिए न किया जाकर व्यापक मानवीय हित में किया जाना चाहिए। मानवीय हित के साथ प्रकृति और पर्यावरण के प्रश्न को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
जी.एम. फसलें – तथाकथित दूसरी हरित क्रांति के सर्वाधिक प्रेरक तत्वों में जी.एम. फसलें प्रमुख हैं। कृषि संकट और खाद्य संकट को सुलझाने की दिशा में जैव सवंर्ध्दित या जी.एम. फसलों को बढ़ावा देने की बात कही जाती है। जीन रोपित, जीन सवंर्धित या ‘जेनेटिकली मोडिफाईड’ फसलों को जैव खेती या अनुवांशिक खेती भी कहते हैं। बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के वैज्ञानिकों ने परंपरागत बीजों के जीन को परिवर्तित कर ऐसे बीजों का विकास किया है जिन पर विश्वव्यापार समझौतों के ‘ट्रिप्स’ के तहत उन्हें बौध्दिक सम्पदा का अधिकार प्राप्त है। इन कंपनियों के वैज्ञानिकों को अभी तक कीटनाशक जीन ‘बी.टी.’ और खरपतवार नाशक जीन ‘राउंड अप रेडी’ को प्रतिरोपित करने में सफलता मिली है। खाद्य सुरक्षा और भुखमरी को दूर करने के नाम पर आज जी.एम. फसलों की जोर-शोर से वकालत की जा रही है। लेकिन व्यापक राष्ट्रीय सहमति और उपयुक्त नियामक तंत्र के अभाव में अभी तक इसकी खेती खुले तौर पर शुरू नहीं की जा सकी है। लेकिन सरकार की कृषि सुधार नीति की तार्किक परिणति आज न कल जी.एम. फसलों की खेती की स्वीकार्यता में ही होगी। विश्व की बड़ी बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों ने अपने मुनाफे तथा विश्व की कृषि एवं खाद्य व्यवस्थाा पर नियंत्रण कायम करने के लिए विश्व व्यापार समझौतों में बौध्दिक संपदा अधिकार को लागू करवाया। ये कंपनियाँ वैध और अवैध तरीकों को अपनाकर राष्ट्रीय सरकारों की नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में होती हैं। इनका उद्देश्य किसी देश या विश्व के खाद्यान्न की समस्या को हल करना न होकर कृषि और खाद्य व्यवस्था पर नियंत्रण कर मुनाफा कमाना होता है।
भारत में अमेरिकी बॉयोटेक कंपनी मोंसैंटो ने 1970 से ‘मैकिट’ और ‘राउंडअप’ नामक खरपतवार नाशक रसायनों के उत्पादन के साथ अपनी उपस्थित दर्ज करा ली थी। आगे चलकर इसने ‘महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड कंपनी’ (महिको) के साथ समझौता कर अपने पाँव पसारे। महिको, मोंसैंटो का भारतीय चेहरा है। बी.टी. कॉटन में इसे लगभग 10 वर्ष पूर्व सफलता मिल चुकी है। भारत में यह 60 प्रकार के बीजों, जिनमें 40 खाद्य फसलें हैं, का सीमित परीक्षण करवा कर उसे बाजार में उतारने को तैयार है। बी.टी. बैगन को बाजार में उतारने की इसकी तैयारी लगभग पूर्ण हो चुकी थी। लेकिन 9 राज्यों की सरकारों, पर्यावरण विशेषज्ञों, कृषि वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों तथा व्यापक जनता के विरोध के कारण सरकार को अपना कदम वापस लेना पड़ा । अभी भी इस कंपनी ने हार मान ली हो ऐसा नहीं है। वे उचित अवसर और मौके की तलाश में हैं । हमारा राष्ट्र विरोधी, स्वार्थी और भ्रष्ट नेतृत्व वर्ग भी लगातार उनके लिए जगह बनाने की कोशिश कर रहा है। इसके साथ ही यह जाँच का विषय है कि लाखों टन बी.टी. कॉटन बीज का तेल खाद्य बाजार में बिना परीक्षण के कैसे उतार दिया गया? इसके पीछे बड़े घपले की आंशका है।
भारत सरकार, मेंसैंटो पर इतनी मेहरबान है कि बैंगलोर स्थित ‘भारतीय विज्ञान संस्थान’ (आई.आई.एस.सी.) की प्रयोगशाला की सुविधा संग्रहित जर्मप्लाज्म के साथ अनुसंधान के लिए इसे दे दी गयी । इसी तरह राजस्थान सरकार ने भी कृषि के क्षेत्र में मोंसैंटो के साथ-साथ उसी तरह की अन्य कंपनियों के साथ बहुपक्षीय समझौता किया है। इससे राजस्थान की कई खाद्य फसलों, व्यावसायिक फसलों तथा चारा की फसलों में जी.एम. बीजों के उपयोग की संभावना बढ़ गयी है। आश्चर्यजनक यह है कि इस समझौते की जानकारी किसी व्यक्ति या संगठन को एक दूसरे की लिखित अनुमति के बगैर साझा नहीं किया जा सकता। यह गुप्त समझौता कई तरह के संदेहों और आशंकाओं को जन्म देता है।
विश्व व्यापार संगठन समझौतों को लागू करने वाला एक माध्यम मात्र नहीं है। बीज और कृषि व्यापार में शामिल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा पूरी दुनिया के कृषि और खाद्य पर नियंत्रण की कोशिशों को बढ़ावा देने के साथ-साथ यह उन्हें कानूनी संरक्षण प्रदान करने वाले न्यायायिक अभिकरण की भूमिका निभाता है। जीन संवर्ध्दित खेती को बढ़ावा देने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के समूह में मोंसैंटो, नोवार्टिस, डयूपोंट, जेनेका और डाउ का नाम महत्वपूर्ण है। इनका दावा है कि पूरी दुनिया में आज 3 करोड़ एकड़ जमीन पर जीन संवर्ध्दित फसलों का उत्पादन एक वास्तविकता है। ये शक्तिशाली कंपनियाँ विश्वव्यापार संगठन को अपने व्यापारिक हितों के लिए इस्तेमाल करती हैं। ”जो सरकारें जीन परिवर्तित फसलों के खिलाफ हैं, उनका मुकाबला करने के लिए विश्व व्यापार संगठन का इस्तेमाल किया जा रहा है। उदाहरण के लिए सितम्बर 1997 में विश्व व्यापार संगठन ने यूरोपीय संघ द्वारा आयात पर लगाये गये प्रतिबन्ध के खिलाफ फैसला दिया जो हार्मोन का प्रयोग करके पैदा किये गये गोमांस और मोंसैंटो द्वारा किये गये पोसीलाक हार्मोन से उपचार किये गये मवेशियों के दूध पर लगाया गया था।”
बी.टी. कॉटन के साथ आज से लगभग दस वर्र्ष पूर्व जी.एम. फसलें भारत में प्रवेश पा चुकी हैं। बी.टी. कॉटन के बारे में महिको और मोंसैटो के द्वारा किये गये दावे पूरी तरह सच नहीं निकले। यह न तो कीट प्रतिरोधी साबित हुआ और न ही अधिक उत्पादन देने वाला । इसने लाखों किसानों के जीवन को बर्बाद कर दिया। 2006 में तमिलनाडु और हरियाणा के किसानों ने धान की जी.ई. (जेनेटिकली इंजीनियर्ड) और जी.एम. (जेनेटिकली मोडिफाईड) फसलों को बर्बाद कर अपना प्रतिरोध दर्ज किया। 2010 में बी.टी. बैगन, जो दुनिया की पहली खाद्य फसल होती, का विरोध इतना ज्यादा तीव्र और व्यापक था कि इसने भारत सरकार को अपना कदम वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। वस्तुत: बी.टी. बैगन तो मात्र बहाना था। इसके पीछे कई प्रकार के खाद्य फसलों, फलों, सब्जियों को बाजार में उतारने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। बी.टी. बैगन के माध्यम से भारतीय जन समाज का मिजाज पहचानने की कोशिश की जा रही थी।
‘द हिन्दू‘ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार हाल-फिलहाल कई संस्थाओं ने सरकार से आग्रह किया है कि वह ‘इंडियन डिपार्टमेन्ट ऑफ बॉयो टेक्नॉलॉजी’ और आस्ट्रेलिया की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैण्ड’ के उस समझौते को रद्द करे जिसमें 4-5 वर्षों के शोध और प्रायोगिक खेती के बाद हिन्दुस्तान में 6 से 10 वर्षों के भीतर जी.एम. केला उत्पादित किये जाने का प्रस्ताव है। भारतीय प्रसूता स्त्रियों में आयरन की कमी के कारण मौत से रक्षा के लिए बिल गेट्स ने क्वींसलैण्ड विश्वविद्यालय के डॉ. डेल को 15 मिलियन की सहायता दी है।”
एक पर्यावरणविद् का कहना है ”भारत केला का सबसे बड़ा उत्पादक (30 मिलियन मीट्रिक टन) और उपभोक्ता राष्ट्र है। भारत, युगांडा (जो 12 मिलियन मीट्रिक टन केला उत्पादित करता है) मिलकर पूरे विश्व के 40 से 50 प्रतिशत केला का उत्पादन करते हैं। हमारे यहाँ ‘राष्ट्रीय केला शोध संस्थान’ में 200 केला की प्रजातियाँ संरक्षित है।”
पर्यावरणविदों ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा है कि केला में पर्याप्त पोषक तत्व हैं पर आयरन इसकी मुख्य विशिष्टता नहीं है। वस्तुत: हल्दी, रामतिल, कमल के तना और अमचूर में केला की अपेक्षा 2000 से 3000 प्रतिशत ज्यादा आयरन हैं।” उन लोगों ने प्रधानमंत्री से आग्रह किया कि वे इस परियोजना को रद्द कर संसाधनों की बर्बादी को रोकें। क्योंकि भारत 80 मिलियन रूपये इस पर खर्च कर रहा है।
डॉ. वन्दना शिवा का कहना है” हमें दूरस्थ स्थानों पर बैठे किसी शक्तिशाली व्यक्ति द्वारा प्रायोजित व्यर्थ के प्रयोगों की आवश्यकता नहीं है जो हमारे जैव विविधता, खान-पान और खेती के बारे में नहीं जानता। वह अपने विनाशक शक्ति के द्वारा हमारी जैव विविधता, हमारे बीज सम्प्रभुता, ज्ञान सम्प्रभुता और स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहा है और इसके गंभीर परिणामों से उसे कुछ लेना-देना नहीं है। हमें इस बात की जरूरत है कि हम महिलाओं के हाथ में खाद्य सुरक्षा की शक्ति प्रदान करें। हर अंतिम स्त्री और हर अंतिम बच्चा प्रकृति प्रदत्त जैव विविधता के उपहार से अपना हिस्सा ग्रहण करे।”
जी.एम. फसलों की व्यावसायिक खेती की इजाजत की प्ररकिया को आसान बनाने के लिए केन्द्र सरकार 2009में एक विधेयक लायी जिसे ‘भारतीय जैव प्रौद्योगिकी नियंत्रक प्राधिकरण विधेयक 2009’ (बी.आर.ए.आई.) कहा जा रहा है। ‘ब्राई’ पूरी तरह से अलोकतांत्रिक, मनमाना तथा जी.एम. फसलों की दिशा में कार्य कर रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को साधने वाला विधेयक है। जी.एम. फसलों के बारे में अब तक नियामक संस्था पर्यावरण मंत्रालय रहा है, जिससे यह कार्य छीन कर विज्ञान मंत्रालय के अन्तर्गत तीन सदस्यीय समिति को सौंपने का प्रावधान किया जा रहा है। इससे जी.एम. फसलों की व्यावसायिक खेती के लिए अनुमति की प्रक्रिया आसान हो जायेगी तथा जनता के स्वास्थ्य, पर्यावरणीय नुकसान, आर्थिक एवं नैतिक प्रश्नों से जुदा करके इस मुद्दे को सिर्फ तकनीकी मुद्दा बना दिया जायेगा । इस विधेयक का चरित्र जनविरोधी, राष्ट्रविरोधी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों की चिंता करने वाला है। मई 2013 में 17 सांसदों ने विज्ञान और तकनीकी मंत्री जयपाल रेड्डी को पत्र लिखा है कि हाल-फिलहाल लोकसभा में प्रस्तुत भारतीय जैव प्रौद्योगिकी प्राधिकरण विधेयक को वापस लिया जाये। यह बिल जी.एम. फसलों की स्वीकृति के लिए एकल खिड़की प्रक्रिया विकसित करने का पक्षधर है। अगर यह विधेयक पारित हो गया तो बी.टी. बैगन जैसे जी.एम. फसलों को बाजार में उतारना अत्यन्त आसान हो जायेगा।
जी.एम. फसलों से फसलों की विविधता प्रभावित होगी तथा इन बीजों का निर्माण करने वाली कंपनियाँ अपने एकाधिकार के कारण किसानों से इसकी मनमानी कीमत वसूल करेगीं। कृषि पर संसद की स्थाई समिति ने अभी ‘कल्टीवेशन ऑफ जेनेटिकली मोडिफाईड फूड क्रॉप्स प्रॉस्पेक्टस एण्ड इफेक्ट्स’ नाम से संसद में सर्वसम्मति से एक रिपोर्ट पेश की है। इस संसदीय समिति के अध्यक्ष वासुदेव आचार्य ने गार्गी परसाई से बातचीत करते हुए कहा कि ”हमारे देश में 2200 प्रकार के बैगन हैं। अगर हम जी.एम. बैगन की अनुमति देते हैं तो बैगन की जो विविध प्रजातियाँ हैं वे प्रदूषित और विलुप्त हो जायेगीं, जैसा कि कपास के साथ हुआ। समिति के सदस्यों ने जब विदर्भ में यवतमाल की यात्रा की तो हमने किसानों से पूछा कि वे बी.टी. कॉटन को क्यों उगा रहें है, जिसकी लागत ज्यादा और मुनाफा कम है ? उन्होंने कहा कि उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है, क्योंकि वैकल्पिक बीज अब उपलब्ध नहीं हैं। प्रारंभ में मोंसैंटो के बी.टी. कॉटन के 450 ग्राम का पैकेट 1700 रूपये में बेचा जाता था। आन्ध्र प्रदेश सरकार ने जब इसे न्यायालय में चुनौती दी तो इसकी कीमत 750 रू. प्रति पैकेट की गयी पर हर पैकेट पर मोंसैंटो को बीज विकसित करने के एवज में 250 रूप की रॉयल्टी देनी पड़ी। पिछले वर्ष इस निजी बीज कंपनी के एकाधिकार के कारण एक पैकेट बीज 1200 से 2000 रुपये में बेची गयी क्योकि कंपनी के द्वारा जानबूझकर कृत्रिम अभाव पैदा कर कीमतों में वृध्दि की गयी। बीज कंपनियों का इसके पीछे एकमात्र उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है।”
जी.एम. फसलों ने प्राकृतिक स्वाभाविकता को नष्ट कर प्रकृति प्रदत्त चीजों के गुणों मे परिवर्तन और तोड़-फोड़ शुरू कर दी है। इसने कई तरह के प्राकृतिक, पर्यावरणीय और नैतिक सवाल खड़े कर दिये हैं। आज सुअरों में तेज वृध्दि के लिए मानवीय विकास को निर्धारित करने वाले जीनों का प्रवेश कराया जा रहा है। क्या सुअर के मांस खाने वाले इसे स्वीकार करेंगे? इसी तरह अन्य वनस्पतियों में अलग तरह के जीव-जन्तुयों के जीनों का प्रवेश कराया जा रहा है। जैसे सोयाबीन में मछली का जीन। क्या यह शाकाहारियों की दृष्टि से उचित होगा? प्रकृति की स्वाभाविकता से यह मानवीय छेड़छाड़ मनुष्य और प्रकृति दोनों के लिए विनाशक है।
बीज के क्षेत्र में कार्य कर रही मुनाफाखोर कंपनियों की सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि उनके द्वारा उत्पादित बीजों से पैदा हुई फसलों का उपयोग किसान अगली फसल के लिए बीज के रूप में कर सकता था। किसान अपने अन्य साथियों में भी इसे वितरित कर सकता था। इसका समाधान इन कंपनियों ने ‘टर्मिनेटर’ या ‘बाँझ’ बीजों के विकास में ढूँढ़ा। ‘टर्मिनेटर’ बीज जीन परिवर्तित ऐसे बीज हैं, जिनसे उपजायी गयी फसल को दुबारा बीज के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। ऐसा करने पर वह अंकुरित नहीं होगा या सीमित मात्रा में अंकुरित होगा। किसानों को हर बार बीज कंपनियों से बीज खरीदने को मजबूर होना पड़ेगा । यह पध्दति अपनी फसलों को सदियों से बीज के रूप में बचाकर रखने और इस्तेमाल करने की किसानों की स्वतंत्रता का हनन करता है। विश्वव्यापार समझौतों के तहत ‘ट्रिप्स’ प्रोटोकॉल के अन्तर्गत उत्पाद या पध्दति पर कंपनियों को बौध्दिक संपदा अधिकार प्राप्त है। इससे जीन चोरी और जीन डकैती को बढ़वा मिला है। ”इसका उदाहरण जीन पदार्थों जैसे कि बीजों के जर्मप्लाज्म को पेटेण्ट कराने का अधिकार है, जो पेटेण्ट कानून के अन्तर्गत किसानों के अपनी ही फसल से बीज लेकर दोबारा फसल बोने के अधिकार को खतरे में डाल देगा । यह जीन संसाधनों के स्वामित्वहरण की असाधारण कोशिश है जिन्हें वास्तव में किसानों, जंगल में रहने वाले स्थानीय समुदायों ने सदियों के दौरान खेती के प्रयोग द्वारा पैदा किया था। इस तरह की जैविक चोरी और जीन चोरी विश्वव्यापार संगठन के खिलाफ संघर्ष का बुनियादी मुद्दा बन गयी है।”
जी.ई. और जी.एम. फसलें मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक होने के कारण पूरी दुनिया में विवादास्पद हैं। यह बड़े कॉरपोरेशनों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कृषि अर्थतंत्र पर कब्जे का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। स्वास्थ्य और मानवीय जीवन को ध्यान में रखे बिना सिर्फ उच्च उत्पादकता के कारण इन फसलों के प्रयोग को वैध ठहराया जाता है। इस प्रक्रिया के कारण किसान अपने पारंपरिक बीजों को खोकर बीज की दृष्टि से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गुलाम बनते जा रहे हैं। ग्यारह देशों के ‘इंडिपेंडेंट साईंस पैनल’ के वैज्ञानिकों ने इन फसलों से होने वाली एलर्जी, बाँझपन, रोग प्रतिरोध क्षमता के ह्रास, जन्म विकार और गर्भपात जैसी समस्याओं के प्रति आगाह किया है। खुद हमारे देश में बी.टी. कॉटन के बीज और खल्ली खिलाने के कारण पशुवों में दूध की कमी और प्रजनन की समस्याएँ उभरने की शिकायतें मिली हैं। विश्व की पहली जी.एम. फसल टमाटर को अमेरिका में स्वास्थ्यगत कारणों से वापस ले लिया गया था।
”हाल के कुछ शोधों ने जी.एम. खाद्य पदार्थों की सुरक्षा से सम्बन्धित 90 दिनों के प्रयोगों पर आधारित मूर्खतापूर्ण दावों की पोल खोल दी है। ऐसा पाया गया है कि बहुत सारी स्वास्थ्यगत परेशानियाँ 90 दिनों के बाद उभर कर सामने आती हैं। यह शोध फ्रांस के केन विश्वविद्यालय के माइकऱो बॉयोलॉजी के प्रोफेसर गिलिस एरिक सेरेलिनी के दल के द्वारा किया गया है। ये प्रयोग दो वर्षों की अवधि में किये गये और ‘फूड एंड केमिकल टौक्सीकोलॉजी’ के जर्नल में प्रकाशित हुए। इस प्रयोग में उन मादा चूहों को जिन्हें जी.एम. खाद्य पदार्थ खिलाये गये, उनकी मृत्यु दर, उन मादा चूहों से दो गुणा और तीन गुणा ज्यादा थी, जिन्हें यह नहीं खिलाया गया। साथ ही उन चूहों में लीवर, किडनी और टयूमर से संबंधित स्वास्थ्य समस्याएँ बहुत ज्यादा थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि छोटी अवधि के परीक्षण और निरीक्षण कॉरपोरेट हितों को ध्यान में रख कर किये जाते हैं। ससेक्स विश्वविद्यालय के ‘साईंस पॉलिसी’ के प्रोफेसर एरिक माईलस्टोन का कहना है ”जी.एम. खाद्य पदार्थ की स्वीकृति के क्रम में सही तरीके से जाँच न किया जाना सबसे मौलिक समस्या है। सब कुछ जिस तरीके से होता है, उसे मैं इच्छा जनित विश्वास या धारणा के रूप में व्याख्यायित करना चाहूँगा।”
”इन्डिपेन्डेन्ट साईंस पैनल” के वैज्ञानिकों का मानना है कि जी.एम. फसलों के जीन हानिकारक हैं। उदाहरण के लिए बी.टी. प्रोटीन जो कीड़ों को मारता है, उसमें शक्तिशाली इम्यूनोजीन और एलर्जी पैदा करने वाले जीन होते हैं। इन फसलों के कई ‘साईड इफेक्ट’ होते हैं। ये फसलें कई तरह की बैक्टीरिया और नये वायरस को जन्म देते हैं, जो कई तरह की बीमारियों के कारक बनते हैं और मनुष्य तथा पशुओं की कोशिकाओं की जीन प्रयिा को बाधित करते हैं।
हाल-फिलहाल यूरोप, अमेरिका, कनाडा और न्यूजीलैण्ड के 17 विशिष्ट वैज्ञानिकों ने भारतीय प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा है कि ”जी.एम. रूपान्तरण कई तरह की ऐसी नवीन जैव रासायनिक प्रकिऱयाओं को जन्म दे सकता है जो अनपेक्षित हो और जिनका कोई प्राकृतिक इतिहास न हो और जिनके बारे में नहीं कहा जा सकता कि वे सुरक्षित ही होंगे।” विशष कर बी.टी. बैगन के बारे में इस पत्र में कहा गया है कि ”बी.टी. जीव विष (टौक्सीन) प्रामाणिक रूप से शक्तिशाली इम्यूनोजीन है जो एलर्जी की प्रतिकिरया को जन्म देता है। जिन जानवरों को बी.टी. मक्का खिलाया गया उनमें प्रत्यक्ष रूप से विशाक्तता के लक्षण दिखायी पड़े । मोंसैंटो का अपना स्वतंत्र पुनर्मूल्यांकन और 90 दिनों का शोध अध्ययन भी यह दर्शाता है कि बी.टी. मक्के की फसल (90 दिनों के प्रयोग में भी) जानवरों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।”
बी.टी. बैगन को पशुओं को खिलाये जाने के बारे में महिको-मोंसैंटो के अपरिष्कृत शोध के आंकड़ो की फाईल भी इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसमें भी जानवरों के विविध अंगों – लीवर, किडनी, अगन्याशय में विशाक्तता के लक्षण पाये गये। यह विशेष रूप से ध्यान दिये जाने योग्य तथ्य है कि यह प्रतिकूल प्रभाव मुख्य रूप से 90 दिनों तक खिलाये जाने के परिणाम पर आधारित हैं। वे जो जीवन भर इस उत्पाद का उपभोग करेंगे, उनके जीवन की सुरक्षा गंभीर रूप से चिंता पैदा करती है।”08
जी.एम. फसलों का नकारात्मक पक्ष यह है कि इसके ट्रांसजेनिक प्रदूषण से दूसरे पौधों और वनस्पतियों के भी प्रदूषित होने का खतरा मौजूद रहता है। ‘इंडिपेंडेंट साईंस पैनल’ (स्वतंत्र विज्ञान मंच) में एकत्र हुए कई वैज्ञानिकों ने जी.एम. फसलों पर तैयार एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के निष्कर्ष में कहा है – ”अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रांसजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जी.एम. फसलों और गैर जी.एम. फसलों का सहअस्तित्व नहीं हो सकता। जी.एम. फसलों को अब दृढ़ता से अस्वीकृत कर देना चाहिए। जानी-मानी बायोकेमिस्ट और पोषण विशेषज्ञ प्रोफेसर सूसन बारडोक्ज ने कहा है ‘अब तक की सब तकनीकें ऐसी थीं जो नियंत्रित हो सकती थीं पर मानव इतिहास में जी.एम. पहली तकनीक है जिससे खतरा उत्पन्न हो गया हो तो इस क्षति को रोका नहीं जा सकता है, क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती है।”09
यह एक दुष्प्रचारित तथ्य है कि जी.एम. फसलों से ही उत्पादकता बढ़ायी जा सकती है। कृषि पर संसद की स्थाई समिति के अध्यक्ष वासुदेव आचार्य का कहना है कि 1951-52 में हमारे देश में मात्र 52 मिलियन टन अनाज का उत्पादन होता था पर आज बिना जी.एम. टेक्नॉलॉजी के 257 मिलियन टन अनाज का उत्पादन हो रहा है । यह सही है कि कभी भी नयी टेक्नॉलॉजी का विरोध नहीं किया जाना चाहिए पर यह चंद कंपनियों की अपेक्षा देश के उपभोक्ताओं तथा किसानों के हित में होना चाहिए। अगर जी.एम. फसलें हमारे देश के बाजार में उतारी जाती हैं तो उसकी बहुस्तरीय जाँच एवं लेवलिंग होनी चाहिए। बिना किसी मजबूत बहुअनुशसनीय विनियामक व्यवस्था के जी.एम. फसलों की न तो परीक्षण खेती और न ही व्यावसायिक खेती की अनुमति दी जानी चाहिए। ऐसे फसलों को खाद्य बाजार में आयातित भी नहीं किया जाना चाहिए। यह दुर्भाग्यजनक है कि चंद कंपनियों के व्यापारिक हितों को ध्यान में रखकर कुछ स्वार्थी तत्व जनता के हितों को पीछे धकेल कर जी.एम. फसलों की वकालत कर रहें है। सुप्रीम कोर्ट ने देश के शीर्ष जैव तकनीक वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव को ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रुवल कमेटी (जी.ई.ए.सी.)’ के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया है। वे ‘सेंटर फॉर सेल्यूलर मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी’ के पूर्व निदेशक रह चुके हैं। उन्होंने नवम्बर 2009 में ट्रिब्यून में प्रकाशित एक बयान में कहा था ”चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को जी.एम. फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें। इन प्रयासों का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि पर नियंत्रण प्राप्त करना है।”
जीन संवर्ध्दित फसलों की खुली प्रायोगिक खेती पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ समिति की अंतिम रिपोर्ट अभी आना शेष है पर उसकी अंतरिम रिपोर्ट से जीन अभियंत्रिकी और जैव विविधता से जुड़े 51 अन्तर्राष्ट्रीय स्वतंत्र वैज्ञानिकों ने अपनी सहमति व्यक्त की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बी.टी. फसलों की खुली प्रायोगिक खेती को 10 वर्षों तक के लिए स्थगित कर दिया जाये, जब तक समुचित नियामक प्रक्रिया और सुरक्षा मानकों को निर्धारित न कर लिया जाये। जी.एम. फसलों की स्वीकृति के लिए स्वार्थी तत्व और भारत सरकार के मंत्रालय किस तरह लालायित हैं, इसका उदाहरण कई स्तरों पर देखा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ समिति ने जब अंतरिम रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी तब कृषि मंत्रालय ने इस पर आपत्ति व्यक्त की कि उसके प्रतिनिधि की अनुपस्थिति में समिति ने यह रिपोर्ट दी है। कोर्ट ने ‘इंडियन कॉउन्सिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च’ के पूर्व डायरेक्टर जनरल आर.एस. परोदा को समिति के छठवें सदस्य के रूप में नियुक्त किया। पर डॉ. परोदा पर आरोप है कि उनकी संस्थाओं ने मोंसैंटो और उसके भारतीय सहयोगियों से आर्थिक अनुदान प्राप्त किया है। स्वाभाविक है ऐसे में वे मोंसैंटो के हितों की रक्षा करेंगे।