पर्यावरण संरक्षण में न्यायपालिका की भूमिका, भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में न्यायपालिका द्वारा महत्वपूर्ण पहल की गई है। जीवन का अधिकार जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 21 में है, की सकारात्मक व्याख्या करके, न्यायपालिका ने इस अधिकार में ही ‘स्वस्थ्य पर्यावरण के अधिकार’ को निहित घोषित किया है। सामाजिक हित, विशेषकर पर्यावरण के संरक्षण के प्रति, न्यायपालिका की वचनबद्धता के कारण ही ‘जनहित मुकद्दमों ’ का विकास हुआ। भारतीय न्यायपालिका ने 1980 से ही पर्यावरण-हितेषी दृष्टिकोण अपनाया है। न्यायपालिका ने विविध मामलों में निणर्य देते हुए यह स्पष्टï किया है कि गुणवतापूर्ण जीवन की यह मूल आवश्यकता है कि मानव स्वच्छ पर्यावरण में जीवन व्यतीत करे।
पर्यावरण के अधिकार को न्यायिक मान्यता देहरादून की चूने की खान के मामले (ग्रामीण मकदमेबाजी बनाम उत्तर प्रदेश) में 1987 में दी गई, तथा 1987 में ही श्रीराम गैस रिसाव के मामले (एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ) में इस बात पर पुन: बल दिया गया। न्यायपालिका ने अनेक ऐसे मामलों की सुनवाई भी की है जिनमें पर्यावरण के लक्ष्यों तथा विकास की आवश्यकताओं में तालमेल बैठाया गया। अधिकांश मामलों में न्यायपालिका का विचार रहा है कि हालॉकि विकास के महत्व को गौण स्थान नहीं दिया जा सकता, फिर भी पर्यावरण की किमत पर विकास को तवज्जों नही दी जा सकती, भले ही इस प्रक्रिया में अल्पकालीन हानि हो जैसे कुछ नौकरियों या राजस्व की हानि आदि। पर्यावरण संरक्षण पर न्यायपालिका के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय निम्नलिखित है :
- देहरादून की चूना खान का मामला, 1987
इस मामले का संबंध दून घाटी में चूने की खानों द्वारा पर्यावरण को हो रहे गंभीर खतरे से था। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि उन सभी खानों में कार्य बंद कर दिया जाए जहां वे खतरनाक स्थिति में थी, फिर चाहे ऐसा करने से खान मालिकों और खानकर्मियों को आर्थिक हानि ही क्यों न हो। ऐसा करना जनसाधारण केा स्वस्थ पर्यावरण में रहने के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए आवश्यक था चाहे इसके लिए कोई भी मूल्य क्यों न चुकाना पडे।
- श्रीराम गैस रिसाव मामला, 1987
श्रीराम गैस रिसाव मामले में <यायालय ने आदेश दिया कि उस जोखिम भरे कारखाने को तुरंत बंद किया जाए जिसमें गैस रिसाव के कारण एक कर्मी की मौत हो गई तथा अन्य लोगों का जीवन संकट में पड़ा। न्यायालय ने कहा कि राज्य के पास अधिकार है कि जोखिम-भरी औद्योगिक गतिविविधयों पर रोक लगा सके, ताकि जनसाधारण के स्वक्वछ पर्यावरण में रहने के अधिकार को सुनिश्चित किया जा सके। इस मामले में न्यायालय ने पूर्ण दायित्व के सिद्धांत का विकास किया ताकि अनुक्वछेद 21 की व्याख्या के अनुसार मुआवजा दिया जा सके। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी कहा कि जीवन के अधिकार में प्रदूषण के जोखिम से पीडित व्यक्तियों को मुआवजा माँगने का अधिकार भी निहित है।
गंगा प्रदूषण मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक चमड़े के उद्योगों को जो गंगा के तट पर प्रदूषण फैला रहे थे यह आदेश दिया कि वे या तो प्रदूषण नियंत्रण स्थापित करें या फिर अपने कारखाने बंद कर दें। न्यायालय ने गंगा के किनारे स्थित लागभग 5000 उद्यमों को आदेश दिया कि वे बहने वाले मल को स्वक्वछ करने वाले संयंत्र लगाएं तथा प्रदूषण को रोकने वाले उपक्रमों की व्यवस्था भी करें।
- पत्थर पीसने वालों का मामला, 1992
इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में पट्टथर पीसने वाली इकाइयों को बंद कर, हरियाणा के पट्टथर पीसने वाले क्षेत्र में स्थापित करने का आदेश दिया। न्यायालय के अनुसार पर्यावरण की गुणवत्ता इस सीमा तक नष्ट करने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि वह उस क्षेत्र में निवास करने वालों के स्वास्थय के लिए खतरनाक बन जाए।
- पर्यावरण जागरूकता मामला, 1992
इस मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने देश में पर्यावरणीय शिक्षा और जागरूकता का प्रासर करने के निर्देश दिये। इन उपायों में स्कूलों में कक्षा एक से बाहरवीं तक पर्यावरण को अनिवार्य विषय के रूप में पढाने की व्यवस्था, विश्वविद्यालयों में एक विषय के रूप में पर्यावरण शिक्षा का प्रावधान, सिनेमाघरों में पर्यावरण विषय पर संदशों का प्रसार-प्रचार तथा दूरदर्शन एवं रेडियों पर पर्यावरण कार्यक्रमों के प्रसारण शामिल हैं।
- दिल्ली वाहन प्रदूषण मामला, 1994
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दूरगामी निर्देश देकर केंद्र सरकार से कहा है कि वह वाहनों द्वारा फैलाए जाने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए प्रभावी उपय करें। इन उपायों में शामिल थे सीसा-मुक्त पर्यावरण-हितैषी पैट्रोल का प्रवधान सार्वजनिक परिवहन के वाहनों के अनिवार्य रूप से सी.एन.जी ईंधन पर चलाया जाना, और दिल्ली की सडक़ों पर 15 वर्ष से अधिक पुराने वाहनों के चलाने पर प्रतिबंध।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि ताजमहल के आस-पास 10,400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में किसी कोयला आधारित उद्योग की अनुमति नहीं होगी। प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से कहा गया कि वे या जो स्वच्छ ईधन का प्रयोग करें या फिर सुरक्षित क्षेत्र से बाहर अपने कारखाने हस्तांतरित करेें। केंद्र सरकार और राज्य सरकार केा निर्देश दिया गया कि ताजमहल के आस-पास हरित पट्टी की व्यवस्था करें, और बिना रूकावट के बिजली की आपूर्ति की जाए ताकि डीजल से चलाए जाने वाले जनरेटरों की आवश्यकता न पड़े।
- दिल्ली की प्रदूषित औद्योगिक इकाइयों की बंदी तथा स्थानांतरण का आदेश, 1996
यह केस एम.सी. मेहता की एक याचिका से 1985 में शुरू हुआ जिसमें कहा गया था कि दिल्ली में 1 लाख से अधिक औद्योगिक इकाइयां वातावरण को प्रदूषित कर रही है जो नागरिकों के स्वास्थ्य को गंभीर खतरा पहुंचा रहें हैं सर्वोक्वच न्यायालय ने याचिका की सुनवाई करते हुए 8 जुलाई, 1996 को अपना निर्णय सुनाते हुए औद्योगिक ईकाइयों को दिल्ली के पर्यावरण के साथ-साथ आम नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ठहराते हुए 168 बडी प्रदूषणकारी इकाइयों को दिल्ली से स्थानांतरित या बंद करने का आदेश दिया।
उपरोक्त मामलों के अलावा जिन अन्य विषयों पर जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायापालिका ने निर्णय किए उनमें शामिल हैं: नगरों के ठोस मलबे का प्रबंधन, दिल्ली के भूमिगत पानी में होती कमी, कोलकाता में हुगली नदी के साथ स्थापित प्रदूषण फैलानेवाले उद्योगों केा बंद करने, पशुओं के प्रति दया, जनजातीय लोगों तथा मछुआरों के विशेषाधिकार, हिमालय तथा वनों की पारिस्थितिकी व्यवस्था, पारिस्थितिकी पर्यटन, भूमि के प्रयोग के प्रतिमान तथा विकास योजनाएँ इट्टयादि। पर्यावरण संरक्षण की प्रक्रिया में न्यायालय द्वारा दिए गए कुछ महत्त्वपूर्ण मौलिक नियम निम्नलिखित हैं:
- प्रत्येक नागरिक को स्वच्छ पर्यावरण में जीने का मौलिक अधिकार है जो संविधान के अनुक्वछेद 21 में दिए गये ‘जीवन जीने के अधिकार’ में निहित है
- सरकारी एजेसियाँ पर्यावरणीय कानूनों के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा न करने के लिए वित्तिय या कर्मचारियों की कमी का बहाना नहीं दे सकतीं
- प्रदूषणकर्ता द्वारा आदायगी का सिंद्धांत पर्यावरणीय कानून का एक महत्त्वपूर्ण पहलु है जिसका तात्पर्य है कि प्रदूषणकर्ता न केवल पर्यावरण की क्षतिपूर्ति के लिए बल्कि प्रदूषण से प्रभावित लोगों को हुई हानि की भी भरपाई करेगा।
- पूर्ण दायित्व के नियम के अनुसार यदि कोई उद्योग किसी ऐसे खतरनाक व्यवसाय में रत है जिससे लोगों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को खतरा है तब उसका यह पूर्ण दायित्व बन जाता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उस कार्य से किसी केा किसी प्रकार का संकट न हो। यदि उस कार्य से किसी को हानि पहुँचती है तो वह उद्योग उस हानि की पूर्ति के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होगा।
- पूर्व सर्तकता या पूर्व चेतावनी सिद्धांत के अनुसार सरकारी अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि वे पर्यावरणीय प्रदूषण के कारणों की पूर्व कल्पना करें उनसे पर्यावरण की सुरक्षा करेें। यह सिद्धांत उद्योगपतियों पर यह उत्तरदायित्व डालता है कि वे यह स्पष्ट करें कि उनके कार्य पर्यावरणीय दृष्टिकोण से हानिकारक नहीं हैं।
- आर्थिक गतिविधियॉं लोगों के स्वास्थ्य तथा जीवन की कीमत पर नही चल सकती। पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता।
1980 तथा 1990 के दशकों में भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जन हित याचिकाओं का आधिकाधिक प्रयोग हुआ। इस प्रक्रिया में पर्यावरण-समर्थक वकिलों जैसे एम.सी.मेहता तथा न्यायधिशों कुलदीप सिंह तथा कृष्णाअययर का विशेष योगदान रहा। पर्यावरण सुरक्षित रखने के कार्य में, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के आरंभिक क्षेत्राधिकार के संविधान के अनुक्वछेद 32 और 326 को आधार बनाकर महत्त्वपूर्ण उपाय किए गए। इसके अतिरिक्त न्यायालयों ने स्वास्थ्य और स्वच्छ पर्यावरण के मूल अधिकार के क्षेत्र का भी विस्तार किया है।