जल प्रदूषण,कारण, प्रभाव और बचने के उपाय

जल प्रदूषण

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जल भी पर्यावरण का अभिन्न अंग है। मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। मानव स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ जल का होना नितांत आवश्यक है। जल की अनुपस्थित में मानव कुछ दिन ही जिन्दा रह पाता है क्योंकि मानव शरीर का एक बड़ा हिस्सा जल होता है। अतः स्वच्छ जल के अभाव में किसी प्राणी के जीवन की क्या, किसी सभ्यता की कल्पना, नहीं की जा सकती है। यह सब आज मानव को मालूम होते हुए भी जल को बिना सोचे-विचारे हमारे जल-स्रोतों में ऐसे पदार्थ मिला रहा है जिसके मिलने से जल प्रदूषित हो रहा है। जल हमें नदी, तालाब, कुएँ, झील आदि से प्राप्त हो रहा है। जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण आदि ने हमारे जल स्रोतों को प्रदूषित किया है जिसका ज्वलंत प्रमाण है कि हमारी पवित्र पावन गंगा नदी जिसका जल कई वर्षों तक रखने पर भी स्वच्छ व निर्मल रहता था लेकिन आज यही पावन नदी गंगा क्या कई नदियाँ व जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। यदि हमें मानव सभ्यता को जल प्रदूषण के खतरों से बचाना है तो इस प्राकृतिक संसाधन को प्रदूषित होने से रोकना नितांत आवश्यक है वर्ना जल प्रदूषण से होने वाले खतरे मानव सभ्यता के लिए खतरा बन जायेंगे।

 जल प्रदूषण के कारण

  1. औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप आज कारखानों की संख्या में वृद्धि हुई है लेकिन इन कारखानों को लगाने से पूर्व इनके अवशिष्ट पदार्थों को नदियों, नहरों, तालाबों आदि किसी अन्य स्रोतों में बहा दिया जाता है जिससे जल में रहने, वाले जीव-जन्तुओं व पौधों पर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है साथ ही जल पीने योग्य नहीं रहता और प्रदूषित हो जाता है।
    2.    जनसंख्या वृद्धि से मलमूत्र हटाने की एक गम्भीर समस्या का समाधान नासमझी में यह किया गया कि मल-मूत्र को आज नदियों व नहरों आदि में बहा दिया जाता है, यही मूत्र व मल हमारे जल स्रोतों को दूषित कर रहे हैं।
    3.    जब जल में परमाणु परीक्षण किये जाते हैं तो जल में इनके नाभिकीय कण मिल जाते हैं और ये जल को दूषित करते हैं।
    4.    गाँव में लोगों के तालाबों, नहरों में नहाने, कपड़े धोने, पशुओं को नहलाने बर्तन साफ करने आदि से भी ये जल स्रोत दूषित होते हैं।
    5.    कुछ नगरों में जो कि नदी के किनारे बसे हैं वहाँ पर व्यक्ति के मरने के बाद उसका शव पानी में बहा दिया जाता है। इस शव के सड़ने व गलने से पानी में जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है, जल सड़ाँध देता है और जल प्रदूषित होता है।

जल प्रदूषण के प्रभाव

1.समुद्रों में होने परमाणु परीक्षण से जल में नाभिकीय कण मिलते हैं जो कि समुद्री जीवों व वनस्पतियों को नष्ट करते हैं और समुद्र के पर्यावरण सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं।
2.प्रदूषित जल पीने से मानव में हैजा, पेचिस, क्षय, उदर सम्बन्धी आदि रोग उपन्न होते हैं।
दूषित जल के साथ ही फीताकृमि, गोलाकृमि आदि मानव शरीर में पहुँचते हैं जिससे व्यक्ति रोगग्रस्त होता है।
4. जल में कारखानों से मिलने वाले अवशिष्ट पदार्थ, गर्म जल, जल स्रोत को दूषित करने के साथ-साथ वहाँ के वातावरण को भी गर्म करते हैं जिससे वहाँ की वनस्पति व जन्तुओं की संख्या कम होगी और जलीय पर्यावरण असन्तुलित हो जायेगा।
5. स्वच्छ जल जो कि सभी सजीवों को अति आवश्यक मात्रा  में चाहिए, इसकी कमी हो जायेगी।

जल प्रदूषण से बचने के उपाय

  1. कारखानों व औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थों के निष्पादन की समुचित व्यवस्था के साथ-साथ इन अवशिष्ट पदार्थों को निष्पादन से पूर्व दोषरहित किया जाना चाहिए। 2. नदी या अन्य किसी जल स्रोत में अवशिष्ट बहाना या डालना गैरकानूनी घोषित कर प्रभावी कानून कदम उठाने चाहिए।
    3.    कार्बनिक पदार्थों के निष्पादन से पूर्व उनका आक्सीकरण कर दिया जाए।
    4.    पानी में जीवाणुओं को नष्ट करने के लिए रासायनिक पदार्थ, जैसे ब्लीचिंग पाउडर आदि का प्रयोग करना चाहिए।
    5.    अन्तर्राष्टीय स्तर पर समुद्रों में किये जा रहे परमाणु परीक्षणों पर रोक लगानी चाहिए।
    6 समाज व जन साधारण में जल प्रदूषण के खतरे के प्रति चेतना उत्पन्न करनी चाहिए।

वायु प्रदूषण कारण, प्रभाव और बचाव के उपाय

 वायु प्रदूषण

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 वायुमण्डल पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। मानव जीवन के लिए वायु का होना अति आवश्यक है। वायुरहित स्थान पर मानव जीवन की कल्पना करना करना भी बेकार है क्योंकि मानव वायु के बिना 5-6 मिनट से अधिक जिन्दा नहीं रह सकता। एक मनुष्य दिन भर में औसतन 20 हजार बार श्वास  लेता है। इसी श्वास के दौरान मानव 35 पौण्ड वायु का प्रयोग करता है। यदि यह प्राण देने वाली वायु शुद्ध नहीं होगी तो यह प्राण देने के बजाय प्राण ही लेगी।

पुराने समय में मानव के आगे वायु प्रदूषण जैसी समस्या सामने नहीं आई क्योंकि प्रदूषण का दायरा सीमित था साथ ही प्रकृति भी पर्यावरण को संतुलित रखने का लगातार प्रयास करती रही। उस समय प्रदूषण सीमित होने के कारण प्रकृति ही संतुलित कर देती थी लेकिन आज मानव विकास के पथ पर अग्रसर है और उत्पादन क्षमता बढ़ा रहा है। मानव ने अपने औद्योगिक लाभ हेतु बिना सोचे-समझे प्राकृतिक साधनों को नष्ट किया जिससे प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ने लगा और वायुमंडल भी इससे न बच सका। वायु प्रदूषण केवल भारत की समस्या हो ऐसी बात नहीं, आज विश्व की अधिकांश जनसंख्या इसकी चपेट में है।

हमारे वायुमण्डल में नाइट्रोजन, आक्सीजन, कार्बन डाई आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड आदि गैस एक निश्चित अनुपात में उपस्थित रहती हैं। यदि इनके अनुपात के सन्तुलन में परिवर्तन होते हैं तो वायुमण्डल अशुद्ध हो जाता है, इसे अशुद्ध करने वाले प्रदूषण कार्बन डाई आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड, हाइड्रोकार्बन, धूल मिट्टी के कण हैं जो वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं।

 वायु प्रदूषण के कारण

 विश्व की बढ़ती जनसंख्या ने प्राकृतिक साधनों का अधिक उपयोग किया है। औद्योगीकरण से बड़े-बड़े शहर बंजर बनते  जा रहे हैं। इन शहरों व नगरों की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, इससे शहरों व नगरों में आवास-समस्या उत्पन्न हो गई है। इस आवास-समस्या को सुलझाने के लिए लोगों ने बस्तियों का निर्माण किया और वहाँ पर जल-निकासी, नालियों आदि की समुचित व्यवस्था नहीं होने से गन्दी बस्तियों ने वायुप्रदूषण को बढ़ावा दिया है। उद्योगों से निकलने वाला धुआँ, कृषि में रासायनों के उपयोग से भी वायु प्रदूषण बढ़ा है। साथ ही कारखानों की दुर्घटना भी भयंकर होती है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने की दुर्घटना गत वर्षों की बड़ी दुर्घटना थी जिससे एक ही समय हजारों व्यक्तियों को असमय मरना पड़ा था और जो जिन्दा रहे वो भी  विकंलाग और विकृत होकर इस दुर्घटना या गैस त्रासदी की कहानी बताते हैं।

आवागमन के साधनों की वृद्धि आज बहुत अधिक हो रही है। इन साधनों की वृद्धि से इंजनों, बसों, वायुयानों, स्कूटरों आदि की संख्या बहुत बढ़ी है। इन वाहनों से निकलने वाले धुएँ वायुमण्डल में लगातार मिलते जा रहे हैं जिससे वायुमण्डल में असन्तुलन हो रहा है।
वनों की कटाई से वायु प्रदूषण बढ़ा है क्योंकि वृक्ष वायुमण्डल के प्रदूषण को निरन्तर कम करते हैं। पौधे हानिकारक प्रदूषण गैस कार्बन डाई आक्साइड को अपने भोजन के लिए ग्रहण करते हैं और जीवनदायिनी गैस आक्सीजन प्रदान करते हैं, लेकिन मानव ने आवासीय एवं कृषि सुविधा हेतु इनकी अन्धाधुन्ध कटाई की है और हरे पौधों की कमी होने से वातावरण को शुद्ध करने वाली क्रिया जो प्रकृति चलाती है, कम हो गई है।
परमाणु परीक्षण से नाभिकीय कण वायुमण्डल में फैलते हैं जो कि वनस्पति व प्राणियों पर घातक प्रभाव डालते हैं।

वायु प्रदूषण के प्रभाव

  1. यदि वायुमण्डल में लगातार अवांछित रूप से कार्बन डाइ आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन, आक्साइड, हाइड्रो कार्बन आदि मिलते रहें तो स्वाभाविक है कि ऐसे प्रदूषित वातावरण में श्वास लेने से श्वसन सम्बन्धी बीमारियाँ होंगी। साथ ही उल्टी घुटन, सिर दर्द, आँखों में जलन आदि बीमारियाँ होनी सामान्य बात है।2.    वाहनों व कारखानों से निकलने वाले धुएँ में सल्फर डाइ आक्साइड की मात्रा होती है जो कि पहले सल्फाइड व बाद में सल्फ्यूरिक अम्ल (गंधक का अम्ल) में परिवर्तित होकर वायु में बूदों के रूप में रहती है। वर्षा के दिनों में यह वर्षा के पानी के साथ पृथ्वी पर गिरती है जिसमें भूमि की अम्लता बढ़ती है और उत्पादन-क्षमता कम हो जाती है। साथ ही सल्फर डाइ आक्साइड से दमा रोग हो जाता है।3.    कुछ रासायनिक गैसें वायुमण्डल में पहुँच कर वहाँ ओजोन मण्डल से क्रिया कर उसकी मात्रा को कम करती हैं। ओजोन मण्डल अन्तरिक्ष से आने वाले हानिकारक विकरणों को अवशोषित करती है। हमारे लिए ओजोन मण्डल ढाल का काम करता है लेकिन जब ओजोन मण्डल की कमी होगी तब त्वचा कैंसर जैसे भयंकर रोग से ग्रस्त हो सकती है।

    4.    वायु प्रदूषण से भवनों, धातु व स्मारकों आदि का क्षय होता है। ताजमहल को खतरा मथुरा तेल शोधक कारखाने से हुआ है।
    5.    वायुमण्डल में आक्सीजन का स्तर कम होना भी प्राणियों के लिए घातक है क्योंकि आक्सीजन की कमी से प्राणियों को श्वसन में बाधा आयेगी।
    6.    कारखानों से निकलने के बाद रासायनिक पदार्थ व गैसों का अवशोषण फसलों, वृक्षों आदि पर करने से प्राणियों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।

वायु प्रदूषण को नियन्त्रित करने के उपाय

  1. कारखानों को शहरी क्षेत्र से दूर स्थापित करना चाहिए, साथ ही ऐसी तकनीक उपयोग में लाने के लिए बाध्य करना चाहिए जिससे कि धुएँ का अधिकतर भाग अवशोषित हो और अवशिष्ट पदार्थ व गैसें अधिक मात्रा में वायु में न मिल पायें।2.    जनसंख्या शिक्षा की उचित व्यवस्था की जाए ताकि जनसंख्या वृद्धि को बढ़ने से रोका जाए।
    3.    शहरी करण की प्रक्रिया को रोकने के लिए गाँवों व कस्बों में ही रोजगार व कुटीर उद्योगों व अन्य सुविधाओं को उपलब्ध कराना चाहिए।4.    वाहनों में ईंधन से निकलने वाले धुएँ को ऐसे समायोजित, करना होगा जिससे की कम-से-कम धुआँ बाहर निकले।
    5.    निर्धूम चूल्हे व सौर ऊर्जा की तकनीकि को प्रोत्साहित करना चाहिए।
    6.    ऐसे ईंधन के उपयोग की सलाह दी जाए जिसके उपयोग करने से उसका पूर्ण आक्सीकरण हो जाय व धुआँ कम-से-कम निकले।

    7.    वनों की हो रही अन्धाधुन्ध अनियंत्रित कटाई को रोका जाना चाहिए। इस कार्य में सरकार के साथ-साथ स्वयंसेवी संस्थाएँ व प्रत्येक मानव को चाहिए कि वनों को नष्ट होने से रोके व वृक्षारोपण कार्यक्रम में भाग ले।
    8.    शहरों-नगरों में अवशिष्ट पदार्थों के निष्कासन हेतु सीवरेज सभी जगह होनी चाहिए।
    9.    इसको पाठ्यक्रम में शामिल कर बच्चों में इसके प्रति चेतना जागृत की जानी चाहिए।
    10.    इसकी जानकारी व इससे होने वाली हानियों के प्रति मानव समाज को सचेत करने हेतु प्रचार माध्यम जैसे दूरदर्शन, रेडियो पत्र-पत्रिकाओं आदि के माध्यम से प्रचार करना चाहिए।

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का पर्यावरण पर प्रभाव

मोदी सरकार ने हाल ही में भूमि अधिग्रहण बिल में कुछ और संशोधन कर इसे पेश किया। सवाल यह उठता है की पर्यावरण को लेकर मोदी सरकार ने इस विधयेक में क्या बातें कही हैं? क्या मोदी सरकार केवल विकास के नाम पर पर्यावरण से खिलवाड़ कर रही है या फिर उसे पर्यावरण की थोड़ी बहुत चिंता भी है?

कुछ महीने पहले उद्योगों के विकास के नाम पर पर्यावरण मंत्रालय ने एक ऐसे कानून में बदलाव किया था जिसका पर्यावरण और जैव विविधता पर बुरा असर पड़ने की पूरी सम्भावना है| पहले इस कानून के अंतर्गत किसी भी राष्ट्रीय उद्यान और जैव विविधता क्षेत्रों के 10 किमी. की दूरी के बाद ही फैक्ट्री स्थापित करने की अनुमति थी लेकिन मोदी सरकार ने इस कानून में बदलाव करते हुए इस सीमा को 5 किमी. कर दिया है| इस कदम से इन क्षेत्रों में बसने वाले जीव जंतुओं और पेड़ पौधों पर बुरा असर पड़ेगा| कुछ विशेष उत्पादन करने वाली कंपनियां जैसे पेंट,चमड़ा, इत्यादि द्वारा बड़े पैमाने पर ऐसे पदार्थों का कचरा भी उत्पादित करतीं हैं जिनका पर्यावरण पर बेहद बुरा असर पड़ता है|

अब बात की जाए नए भूमि अधिग्रहण बिल की जिसके अंतर्गत नए संशोधन किये गए हैं| एक  संशोधन के अंतर्गत

पांच क्षेत्रो को सामाजिक और पर्यावरण पर पड़ने वाले असर के अध्ययन  से दूर रखा गया है जो की निम्नलिखित हैं:

  1. सैन्य मकसद से किया गया अधिग्रहण
  2. गावों में ढांचागत सुविधाएं बढ़ने सम्बन्धी योजना के लिए अधिग्रहण
  3. गरीबों के लिए आवास योजना के लिए अधिग्रहण
  4. पब्लिक प्राइवेट प्रोजेक्ट के तहत चुने गए इंडस्ट्रियल करिडोर्स
  5. अन्य ढांचागत परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण

अब सवाल यह उठता है की जब सरकार इस बात के अध्ययन के लिए ही तैयार नहीं है की उद्योगों को बढ़ावा देने से पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है तो वह पर्यावरण को बचने सम्बन्धी कार्यों का क्रियान्वयन कैसे करेगी? संयुक्त राष्ट्र के हालिया अध्ययन से यह बात साफ़ हुई है की औद्योगिक क्रांति से पहले और बाद के प्रदूषण स्तर में ज़मीन आसमान का फर्क देखा गया है। औद्योगिक क्रांति के बाद से प्रदूषण स्तर में 250 प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ोतरी आई है।

निष्कर्ष इस बात से निकला जा सकता है की सरकार को पर्यावरण से सम्बंधित कुछ कड़े और योजनाबद्ध तरीके खोजने होंगे| कागज़ी कार्यवाही के उठकर इन योजनाओ के क्रियान्वयन में सरकार को खासा ध्यान देने की ज़रुरत है| इस क्रम में नागरिकों की भागीदारी को अलग नहीं रखा जा सकता है। पर्यावरण सम्बन्धी जान जागरण कार्यक्रम के तहत देश के नागरिको की भागीदारी की भी आवश्यकता है जिससे सतत विकास के लक्ष्य को पूरा किया जा सके।

पर्यावरण और उसका हनन

जीवन की उत्पति अस्तित्व व विकास हेतु आवश्यक तथा अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराने वाला ‘पृथ्वी‘ ब्रह्मांड का अब तक का एकमात्र ज्ञात ग्रह है। जीवन की उपस्थिति ही ब्रह्मांड में पृथ्वी की विशिष्टता संस्थापित करती है। पर्यावरण अथवा तकनीकी शुद्ध रूप में प्राकृतिक पर्यावरण सभी सजीवों तथा निर्जिवों का वह संयोजन है जो पृथ्वी पर विद्यमान है। सजीव जैसे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी व निर्जिव जैसे जल, वायु, मृदा, तापमान आदि प्राकृतिक पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटक हैं। पृथ्वी का पर्यावरण पिछले वर्षों में एक चिंता का विषय बन कर उभरा है। निरंतर हो रहा प्रदूषण इसका मुख्य कारण है। प्राकृतिक पर्यावरण एक संतुलित, संरचित, जटिल तथा सक्रिय तन्त्र व प्रक्रिया है। पर्यावरण प्रदूषण इसकी संरचना में आने वाला वह हानिकारक परिवर्तन है जो इसके दूसरे घटकों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है अथवा उनके गुणधर्मों को कम कर देता है। मानव की विकास करने की प्रवृति उसे उपलब्ध संसाधनों के अधिकतम उपभोग हेतु विवश करती है। यही अति-उपभोग परिणित होकर ‘तितली प्रभाव’ (Butterfly effect) को जन्म देता है जिसमें किसी विशाल जटिल व सक्रिय तन्त्र के एक भाग में आने वाला परिवर्तन, जो कि प्रारम्भ में लघु व अप्रभावी प्रतीत होता है, प्रभावों की एक ऐसी श्रृखंला का निर्माण करता है जो वृहद स्तर के अप्रत्याशित परिणामों में बदल जाती है। वर्तमान समय में पर्यावरण के प्रत्येक घटक में मानवीय हस्तक्षेप स्पष्ट है। नदियाँ, झील, तालाब, आदि ना केवल प्रदूषित होकर उपयोग योग्य नहीं रहे हैं वरन् वे विलुप्त भी हो रहे है। ग्रीन-हाउस गैसें- जलवाष्प, कार्बन-डाई-आक्साइड, मिथेन, नाईट्रस-आक्साइड तथा ओजोन की सान्द्रता वातावरण में बढ़ रही है। सयुंक्त राष्ट्र संघ ने विश्व के राष्ट्रों को ‘कार्बन उत्सर्जन’ कम करने का सन्देश दिया है। भारी धातुओं से युक्त औद्योगिक प्रदूषक कृषि योग्य भूमि को बंजर व पीने योग्य पानी को विषैला बना रहे हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में स्थित ‘ओजोन परत’ जो पृथ्वी पर जीवनके लिये आवश्यक है, खत्म होने की कगार पर है। वाहन से निकले ‘सस्पैंडिड पारटीकुलेट मैटर‘ सर्दियों में के साथ ‘धुंध’ का निर्माण करते है, जो विशेषत: महानगर वासियों में विभिन्न सांस सम्बन्धी रोग  उत्पन्न करते हैं।
पृथ्वी का वन-क्षेत्र तेजी से घट रहा है। जंगल और जल-संसाधनों के खत्म होने के कारण वन्य व जलीय जीव जन्तुओं व पेड़-पौधों की प्रजातियाँ अत्यंत ही अप्रत्याशित दर से लुप्त होती जा रही है। पर्यावरण-क्षरण जारी है तथा इसी क्षरण को रोकने की प्रक्रिया व सबंधित क्रिया कलापों को ‘पर्यावरण संरक्षण‘ का नाम दिया गया है। जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान वृद्धि, पर्यावरण प्रदूषण, जैव-विविधता का नष्ट होना आदि परस्पर संबंधित विषय हैं। पर्यावरण के निरंतर क्षय को रोकने तथा इसके कारण भविष्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं से निपटने के लिए वैश्विक व राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रकार की रणनीतियाँ तैयार व कार्यान्वित की जा रही हैं। पर्यावरण प्रदूषण,जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिंग, वर्तमान समय में ‘ग्लैमराईज्ड बजवर्ड’  बन गऐ हैं। जो भी इनकी बात करता है वह बुद्धिजीवी व आधुनिक आंका जाता है। तथा वे लोग जिन्होनें पर्यावरण के नुकसान के अतिरिक्त कुछ नहीं किया है, भी इन विषयों पर बहस करते हैं।

5 जून सन् 1972 को ‘युनायटैड नेशंस कान्फ्रैन्स आन हयूमैन एनवायरनमैण्ट‘ (United Nations Conference on Human Environment) आरम्भ हुई थी तथा इसी तिथि को ही सन् 1973 में प्रथम विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया था। सयुंक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रत्येक वर्ष को किसी ना किसी विशेष रूप में मनाऐ जाने की परंपरा है। वर्ष 2015 को अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष घोषित किया है। वर्ष 2013 को अंतर्राष्ट्रीय जल संरक्षण वर्ष घोषित किया गया था। वर्ष 2011 को अंतर्राष्ट्रीय वन वर्ष घोषित किया गया था। 2011 से 2020 का दशक भी ‘जैव- विविधता दशक’  के रूप में मनाया जा रहा है। जैव विविधता का क्षरण गम्भीर चिंता का विषय इसलिए है क्योंकि मानवीय आवश्यकताएं व पसंद विविध तथा परिवर्तनशील है। पेड़, पशु अथवा सूक्ष्मजीवों की एक प्रजाति मनुष्य की सभी आवश्यकताएं पूर्ण करने में अक्षम हैं। विभिन्न प्रकार के सजीव मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं तथा यह मनुष्य के लिए जैव-विविधता की महत्वपूर्णता को रेखांकित करता है। यदि वर्तमान दर पर पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त होती रही तो सम्पूर्ण मानवता सकंट में पड़ जाएगी। उपरोक्त सभी कारणों से ही ‘जैव विविधता’ एक सघन चिंतन का विषय बनी हुई है।

15 जुलाई 2009 को पाकिस्तान में 300 लोगों के समूह ने 541176 वृक्ष लगाकर ‘गिनीज वल्र्ड रिकार्ड‘ बनाया। यह किसी भी मानव समुह द्वारा 24 घंटे में लगाए गए सर्वाधिक वृक्षों की संख्या है। इसी प्रकार से फिलीपिन्स में 24 फरवरी 2011 को 7000 लोगों ने, 15 मिनट में 64096 वृक्ष लगाए। यह एकसाथ लगाए गए सर्वाधिक वृक्षों के विश्व कीर्तिमान के रूप में ‘गिनीज बुक‘ में दर्ज है।  5 जून सन् 1988 को भारत सरकार द्वारा खेजड़ी वृक्ष पर 60 पैसे मूल्य की डाक टिकट जारी की गई। मरूस्थलीय पारिस्थितीकी में खेजड़ी वृक्ष की उपयोगिता एवं महत्वपूर्णता इससे सिद्ध होती है।  जर्मन रसायनविद् हैंस वोन पैकमैन ने सन् 1898 में पोलिथीन की खोज की थी तथा यह उत्पाद आधुनिक विश्व को दुर्घटना की ओर ही ले जा रहा है। लेकिन अब इसको बन्द करने की आवश्यकता है। इस प्रतिबन्ध को और अधिक कड़ाई से लागू करने तथा पॉलिथीन के विकल्प उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है।  संयुक्त राष्ट्र संघ तथा ‘इन्टरनेशनल यूनियन फार द कंजरवेशन ऑफ नेचर एण्ड नेचुरल रिर्सोसिज‘ (International Union for the Conservation of Nature and Natural Resources) (आई. यु. सी. एन.) को जैव विविधता व पर्यावरण संरक्षण में काम कर रहे हैं।
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पर्यावरण और उसका प्रदूषण

पर्यावरण शब्द दो शब्दों परि+आवरण से मिलकर बना है जिसका अर्थ परि=चारों ओर, आवरण=घेरा, यानि हमें चारों ओर से घेरने वाला पर्यावरण ही है। प्राचीन काल में मानव बहुत सीधा-सादा जीवन व्यतीत करता था, उस समय पर्यावरण के बारे में इतना सब नहीं समझता था लेकिन मानव ने जब से उत्पादन-क्षमता बढ़ाई है, विश्व में पर्यावरण की एक नई समस्या उभरकर सामने आई है। मनुष्य ने पर्यावरण को जब तक अपने हिस्सेदार की तरह समझकर अनुकूल रखा तो लाभ भी लिया। लेकिन जब से मानव ने पर्यावरण के साथ अल्पावधि लाभ हेतु इसके साथ छेड़छाड़ की और अदूरदर्शिता से प्राकृतिक सम्पदाओं का उपयोग किया और उसे नष्ट किया है तभी से वातावरण में अवांछित परिवर्तन हुए जिसके बारे में मानव ने कभी सोचा नहीं और यह हानि उठानी पड़ी है।

मानव ने बिना सोच-विचार के अपनी सुविधा हेतु मोटर-वाहनों का प्रयोग, औद्योगीकरण, कृषि, जनसंख्या वृद्धि, बढ़ती आवश्यकताएँ, वनों की कटाई, वन्य जीवों का शिकार, प्लास्टिक उद्योग, परमाणु परीक्षण आदि से वातावरण में अनचाहे परिवर्तन हुए हैं और हमारी भूमि, जल व वायु के भौतिक, रासायानिक व जैविक गुणों में ऐसा परिवर्तन हुआ है जो कि पूरी मानव सभ्यता के लिए अलाभकारी सिद्ध हुआ है।

आज यदि हम पर्यावरण की सच्चाई से जाँच करें तो हमें सच का पता लग जायेगा कि मनुष्य ने जिस गति से मशीनीकरण के युग में पैर रखा है तभी से हमारे वातावरण पर बुरा प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। हमारा देश भारत जहाँ पुराने समय में प्रकृति का स्वच्छ स्थान माना जाता था साथ ही प्रकृति की हम पर अपार कृपा थी। यहाँ पर पेड़-पौधे, वन्य जीव काफी संख्या में पाए जाते थे। वनों का क्षेत्रफल भी अधिक था लेकिन मानव ने अपने स्वार्थ से वशीभूत  होकर अपने हाथों से जिस बेरहमी से प्रकृति को नष्ट किया है उसी से प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न हुई है। मानव के क्षणिक लाभ के आगे हमारी पवित्र गंगा-यमुना नदी भी नहीं बच पायी। अतः कहा जा सकता है कि मानव ने जिस तरह प्रकृति या पर्यावरण के ऊपर अपने क्रूर हाथ चलाए हैं उससे प्रकृति तो नष्ट हुई है परन्तु मानव भी सुरक्षित नहीं रह सका। मानव ने अपने क्रूर हाथों से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। यह सच है कि मानव जीवन-हेतु साफ-सुथरा पर्यावरण अति आवश्यक है और पर्यावरण प्रकृति का अनुशासन है, जब यह अनुशासन भंग होगा तो सन्तुलन बिगडे़गा और सन्तुलन बिगड़ने पर प्रदूषण उत्पन्न होगा।

प्रदूषण

 पर्यावरण के अंगों जल, थल, नभ, वायु आदि में ऐसा परिवर्तन जो कि उपरोक्त अंगों के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में परिवर्तित कर दें, प्रदूषण कहलाता है। प्रदूषण निम्न प्रकार के होते हैं-

1.    वायु प्रदूषण,
2.    जल प्रदूषण,
3.    भू प्रदूषण या थल प्रदूषण,
4.    ध्वनि प्रदूषण,
5.    परमाणु विखण्डन या नाभिकीय प्रदूषण।

जैव तकनीक और जी.एम. फसलें

सियाराम शर्मा

क्या है जैव तकनीक

जैव तकनीक प्रकृति को जानने, समझने और बदलने का एक भरोसेमन्द तरीका है। यह कोई एक तकनीक न होकर कई तकनीकों का समुच्चय है। जैव रसायन, कोशिका विज्ञान, अनुवांशिकी और जैव विज्ञान के सम्मिलित प्रयासों से इस तकनीक को विकसित किया गया है। इसके अन्तर्गत किसी वनस्पति या जीव के अनुवांशिक गुणों को दूसरे के भीतर प्रतिरोपित किया जाता है। ऐसा जीन बन्दूक के माध्यम से एक का जीन दूसरे की कोशिका में डाल कर किया जाता है या जीन को किसी बैक्टीरिया में प्रतिरोपित कर दूसरी कोशिका को उससे संक्रमित कराकर वांछित परिणाम पाये जाते हैं। आलू के जीन को टमाटर में, मछली के जीन को सोयाबीन में या मनुष्य के जीन को सुअर में प्रतिरोपित किया जा सकता है। यह तकनीक इस धारणा को प्रमाणित करता है कि मानवीय आदेश और कार्य योजना के अनुसार किसी वनस्पति या जीव की आन्तरिक संरचना में बाह्य प्रयासों से परिवर्तन लाया जा सकता है। सबसे पहले कोहेन और बायर ने 1970 में अपने प्रयोगों से इसे संभव कर दिखाया था।

इस जैव तकनीक के माध्यम से वनीला और कोक जैसे कुछ उत्पादों को फैक्ट्री में भी उत्पादित किया जा सकता है या जानवरों के माध्यम से खास तरह की दवाईयाँ विकसित की जा सकती हैं। इस तकनीक के माध्यम से ‘जानवरों का इस तरह से जीन परिवर्तित कर दिया जायेगा कि उससे मनचाहा रसायन तैयार किया जा सके और फिर उसे विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए बेचा जायेगा। ट्रांसजेनिक पशुओं की एक आंशिक सूची मौजूद है, जिनसे मनचाही दवा या दवा के काम आने वाले घटकों का सफलतापूर्वक उत्पादन किया गया है। इस सूची में शामिल हैं – सुअर, जिससे मानव हीमोग्लोबिन बनाया गया। भेड़, जिससे एमिनोएसिड बनाया गया है, जो कुछ लोगों में नहीं पाया जाता । खरगोश से एक ऐसा एन्जाइम बनाया गया है जो एक अनुवांशिक रोग पोम्प डिजीज से ग्र्रस्त लोगों में नहीं पाया जाता।”

जैव तकनीक के पक्ष में किये गए दावे और उसकी सच्चाई

जैव तकनीक के समर्थक इसके पक्ष में बड़े-बड़े दावे करते हैं। सबसे प्रमुख दावा तो यही है कि इस तकनीक के माध्यम से पूरी दूनिया से भूख का साम्राज्य मिटाया जा सकता है। इसके साथ ही यह कि भविष्य में दुनिया के सबसे तेजी से विकसित होने वाले उद्योग में यह परिवर्तित हो जायेगा। इसके माध्यम से मनुष्यों की लाइलाज बीमारियों का उपचार संभव है। इन दावों में कुछ सच्चाई तो है पर आम तौर पर लफ्फाजियाँ हैं। इसी तरह के दावे ‘हरित क्रांति’ ने भी किये थे पर इतिहास ने उसे सही साबित नहीं किया। सिर्फ तकनीकी प्रगति से किसी देश की समस्याएँ हल नहीं हो सकती। सूसन जार्ज के अनुसार जब अमेरिका 1969 में चाँद पर अपने आदमी उतार चुका था, संयुक्त राष्ट्र जनगणना ब्यूरो के अनुसार 1972 में अमेरिका में 10 से 12 मिलियन लोग इसलिए भुखमरी और कुपोषण के शिकार थे कि उनके पास भोजन खरीदने के लिए पैसे नहीं थे।

जैव तकनीक में मानवीय समस्याओं को हल करने की क्षमता अगर अन्तर्निहित है भी तो तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और कॉरपोरेट घराने जो इस क्षेत्र में बड़ी पूँजी लगाने के इच्छुक हैं, ऐसा नहीं होने देंगे। क्योंकि उनका उद्देश्य इस क्षेत्र में लगायी गयी पूँजी से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा और लाभ कमाना होगा। जैव तकनीक से फसलों की ऐसी प्रजातियाँ विकसित की जा सकती हैं जिनमें खादों और कीटनाशकों की जरूरत न हो तथा वे सभी प्रकार की बीमारियों से मुक्त हों। लेकिन इन प्रजातियों के माध्यम से भी वे मुनाफा ही कमाना चाहेंगे। प्राय: पूँजी के साथ जुड़कर तकनीक और भी शोषाणकारी और विनाशक भूमिका अख्तियार कर लेता है। जैव तकनीक पर कब्जे और वर्चस्व के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ एक दूसरे के साथ जबर्दस्त होड़ कर रहीं हैं। एक तरफ अन्तर्राराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान केन्द्र (आई.ए.आर.सी.) और तीसरी दुनिया के कृषि विश्वविद्यालय संसाधनों की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं तो दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस दिशा में शोध और विकास के लिए इफरात पूँजी झोंक कर नेतृत्वकारी भूमिका कायम कर ली है । अत: जैव तकनीक का भविष्य पूरी तरह पूँजी की गिरफ्त में है। अगर इस तकनीक का नियंत्रित ढंग से दुनिया के जनगण के हित में उपयोग किया जा सके तो इसके बेहतर परिणाम हो सकते हैं। लेकिन चिंता इस बात की है कि इस तकनीक की मदद से मुनाफा कमाने की अदम्य लालसा कहीं प्रकृति और पर्यावरण से खिलवाड़ न करने लगे। इससे जुड़े कई नैतिक प्रश्न भी हैं । क्या यह उचित है कि हम पशुओं के शरीर को मानवीय हित की प्रयोगशाला बना दें ? उनके शरीर को फैक्ट्रियों की तरह इस्तेमाल करें ? मनुष्य प्रकृति का जैसे अंग है, पशु-पक्षी भी उसी तरह प्रकृति के हिस्से हैं। अत: हम मनुष्यों को यह हक नहीं है कि अपनी शर्तों पर उनके जीवन की स्वाभाविकता को परिवर्तित कर दें।

जैव तकनीक का प्रभाव

जैव तकनीक के प्रभाव और परिणाम दूरगामी हैं। इसका अनियंत्रित उपयोग प्रकृति, पर्यावरण, मनुष्य, अन्य जीवधारियों और वनस्पतियों पर अत्यन्त दूरगामी और विनाशक प्रभाव डाल सकता है। अत: इस पर लाभ-हानि के दायरे से बाहर निकल कर सोचने और विचार करने की जरूरत है। ”हममें से हर व्यक्ति जैव प्रौद्योगिकी के विश्वव्यापी प्रयोग का हिस्सा है, जिसमें स्थानीय, क्षेत्रीय तथा वैश्विक स्तर पर एक तरफ इससे लाभ उठाने वाले और दूसरी तरफ नुकसान झेलने वाले होंगे। इसके अलमबरदारों द्वारा यह दिखाने की भरपूर कोशिश के बावजूद, कि जैव प्रौद्योगिकी कृषि क्षेत्र में शोध एवं विकास की तार्किक और अनिवार्य दिशा है, वास्तव में यह विकल्पों की एक ऐसी श्रृंखला है, जिसके साथ परिणाम भी जुड़े हुए हैं। इन तकनीकों से पैदा होने वाली सामाजिक, तकनीकी और नैतिक प्रश्नों पर बहस को यह कह कर दबाया जा रहा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी परंपरागत राजनीतिक विमर्श से बाहर की चीजें हैं।

जैव तकनीक द्वारा विकसित खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल जनसाधारण के द्वारा किया जाता है। वह उनके जीवन, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को बहुत दूर तक प्रभावित करता है। अत: जैव तकनीक के बारे में किये गये किसी भी निर्णय को चंद राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और उद्योगपतियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इसके बारे में लिये जाने वाले किसी भी निर्णय में आम लोगों को भी भागीदार बनाया जाना चाहिए। इसके साथ ही इस तकनीक का इस्तेमाल मुनाफे के लिए न किया जाकर व्यापक मानवीय हित में किया जाना चाहिए। मानवीय हित के साथ प्रकृति और पर्यावरण के प्रश्न को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

जी.एम. फसलें – तथाकथित दूसरी हरित क्रांति के सर्वाधिक प्रेरक तत्वों में जी.एम. फसलें प्रमुख हैं। कृषि संकट और खाद्य संकट को सुलझाने की दिशा में जैव सवंर्ध्दित या जी.एम. फसलों को बढ़ावा देने की बात कही जाती है। जीन रोपित, जीन सवंर्धित या ‘जेनेटिकली मोडिफाईड’ फसलों को जैव खेती या अनुवांशिक खेती भी कहते हैं। बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के वैज्ञानिकों ने परंपरागत बीजों के जीन को परिवर्तित कर ऐसे बीजों का विकास किया है जिन पर विश्वव्यापार समझौतों के ‘ट्रिप्स’ के तहत उन्हें बौध्दिक सम्पदा का अधिकार प्राप्त है। इन कंपनियों के वैज्ञानिकों को अभी तक कीटनाशक जीन ‘बी.टी.’ और खरपतवार नाशक जीन ‘राउंड अप रेडी’ को प्रतिरोपित करने में सफलता मिली है। खाद्य सुरक्षा और भुखमरी को दूर करने के नाम पर आज जी.एम. फसलों की जोर-शोर से वकालत की जा रही है। लेकिन व्यापक राष्ट्रीय सहमति और उपयुक्त नियामक तंत्र के अभाव में अभी तक इसकी खेती खुले तौर पर शुरू नहीं की जा सकी है। लेकिन सरकार की कृषि सुधार नीति की तार्किक परिणति आज न कल जी.एम. फसलों की खेती की स्वीकार्यता में ही होगी। विश्व की बड़ी बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों ने अपने मुनाफे तथा विश्व की कृषि एवं खाद्य व्यवस्थाा पर नियंत्रण कायम करने के लिए विश्व व्यापार समझौतों में बौध्दिक संपदा अधिकार को लागू करवाया। ये कंपनियाँ वैध और अवैध तरीकों को अपनाकर राष्ट्रीय सरकारों की नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में होती हैं। इनका उद्देश्य किसी देश या विश्व के खाद्यान्न की समस्या को हल करना न होकर कृषि और खाद्य व्यवस्था पर नियंत्रण कर मुनाफा कमाना होता है।

भारत में अमेरिकी बॉयोटेक कंपनी मोंसैंटो ने 1970 से ‘मैकिट’ और ‘राउंडअप’ नामक खरपतवार नाशक रसायनों के उत्पादन के साथ अपनी उपस्थित दर्ज करा ली थी। आगे चलकर इसने ‘महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड कंपनी’ (महिको) के साथ समझौता कर अपने पाँव पसारे। महिको, मोंसैंटो का भारतीय चेहरा है। बी.टी. कॉटन में इसे लगभग 10 वर्ष पूर्व सफलता मिल चुकी है। भारत में यह 60 प्रकार के बीजों, जिनमें 40 खाद्य फसलें हैं, का सीमित परीक्षण करवा कर उसे बाजार में उतारने को तैयार है। बी.टी. बैगन को बाजार में उतारने की इसकी तैयारी लगभग पूर्ण हो चुकी थी। लेकिन 9 राज्यों की सरकारों, पर्यावरण विशेषज्ञों, कृषि वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों तथा व्यापक जनता के विरोध के कारण सरकार को अपना कदम वापस लेना पड़ा । अभी भी इस कंपनी ने हार मान ली हो ऐसा नहीं है। वे उचित अवसर और मौके की तलाश में हैं । हमारा राष्ट्र विरोधी, स्वार्थी और भ्रष्ट नेतृत्व वर्ग भी लगातार उनके लिए जगह बनाने की कोशिश कर रहा है। इसके साथ ही यह जाँच का विषय है कि लाखों टन बी.टी. कॉटन बीज का तेल खाद्य बाजार में बिना परीक्षण के कैसे उतार दिया गया? इसके पीछे बड़े घपले की आंशका है।

भारत सरकार, मेंसैंटो पर इतनी मेहरबान है कि बैंगलोर स्थित ‘भारतीय विज्ञान संस्थान’ (आई.आई.एस.सी.) की प्रयोगशाला की सुविधा संग्रहित जर्मप्लाज्म के साथ अनुसंधान के लिए इसे दे दी गयी । इसी तरह राजस्थान सरकार ने भी कृषि के क्षेत्र में मोंसैंटो के साथ-साथ उसी तरह की अन्य कंपनियों के साथ बहुपक्षीय समझौता किया है। इससे राजस्थान की कई खाद्य फसलों, व्यावसायिक फसलों तथा चारा की फसलों में जी.एम. बीजों के उपयोग की संभावना बढ़ गयी है। आश्चर्यजनक यह है कि इस समझौते की जानकारी किसी व्यक्ति या संगठन को एक दूसरे की लिखित अनुमति के बगैर साझा नहीं किया जा सकता। यह गुप्त समझौता कई तरह के संदेहों और आशंकाओं को जन्म देता है।

विश्व व्यापार संगठन समझौतों को लागू करने वाला एक माध्यम मात्र नहीं है। बीज और कृषि व्यापार में शामिल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा पूरी दुनिया के कृषि और खाद्य पर नियंत्रण की कोशिशों को बढ़ावा देने के साथ-साथ यह उन्हें कानूनी संरक्षण प्रदान करने वाले न्यायायिक अभिकरण की भूमिका निभाता है। जीन संवर्ध्दित खेती को बढ़ावा देने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के समूह में मोंसैंटो, नोवार्टिस, डयूपोंट, जेनेका और डाउ का नाम महत्वपूर्ण है। इनका दावा है कि पूरी दुनिया में आज 3 करोड़ एकड़ जमीन पर जीन संवर्ध्दित फसलों का उत्पादन एक वास्तविकता है। ये शक्तिशाली कंपनियाँ विश्वव्यापार संगठन को अपने व्यापारिक हितों के लिए इस्तेमाल करती हैं। ”जो सरकारें जीन परिवर्तित फसलों के खिलाफ हैं, उनका मुकाबला करने के लिए विश्व व्यापार संगठन का इस्तेमाल किया जा रहा है। उदाहरण के लिए सितम्बर 1997 में विश्व व्यापार संगठन ने यूरोपीय संघ द्वारा आयात पर लगाये गये प्रतिबन्ध के खिलाफ फैसला दिया जो हार्मोन का प्रयोग करके पैदा किये गये गोमांस और मोंसैंटो द्वारा किये गये पोसीलाक हार्मोन से उपचार किये गये मवेशियों के दूध पर लगाया गया था।”

बी.टी. कॉटन के साथ आज से लगभग दस वर्र्ष पूर्व जी.एम. फसलें भारत में प्रवेश पा चुकी हैं। बी.टी. कॉटन के बारे में महिको और मोंसैटो के द्वारा किये गये दावे पूरी तरह सच नहीं निकले। यह न तो कीट प्रतिरोधी साबित हुआ और न ही अधिक उत्पादन देने वाला । इसने लाखों किसानों के जीवन को बर्बाद कर दिया। 2006 में तमिलनाडु और हरियाणा के किसानों ने धान की जी.ई. (जेनेटिकली इंजीनियर्ड) और जी.एम. (जेनेटिकली मोडिफाईड) फसलों को बर्बाद कर अपना प्रतिरोध दर्ज किया। 2010 में बी.टी. बैगन, जो दुनिया की पहली खाद्य फसल होती, का विरोध इतना ज्यादा तीव्र और व्यापक था कि इसने भारत सरकार को अपना कदम वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। वस्तुत: बी.टी. बैगन तो मात्र बहाना था। इसके पीछे कई प्रकार के खाद्य फसलों, फलों, सब्जियों को बाजार में उतारने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। बी.टी. बैगन के माध्यम से भारतीय जन समाज का मिजाज पहचानने की कोशिश की जा रही थी।

द हिन्दू‘ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार हाल-फिलहाल कई संस्थाओं ने सरकार से आग्रह किया है कि वह ‘इंडियन डिपार्टमेन्ट ऑफ बॉयो टेक्नॉलॉजी’ और आस्ट्रेलिया की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैण्ड’ के उस समझौते को रद्द करे जिसमें 4-5 वर्षों के शोध और प्रायोगिक खेती के बाद हिन्दुस्तान में 6 से 10 वर्षों के भीतर जी.एम. केला उत्पादित किये जाने का प्रस्ताव है। भारतीय प्रसूता स्त्रियों में आयरन की कमी के कारण मौत से रक्षा के लिए बिल गेट्स ने क्वींसलैण्ड विश्वविद्यालय के डॉ. डेल को 15 मिलियन की सहायता दी है।”

एक पर्यावरणविद् का कहना है ”भारत केला का सबसे बड़ा उत्पादक (30 मिलियन मीट्रिक टन) और उपभोक्ता राष्ट्र है। भारत, युगांडा (जो 12 मिलियन मीट्रिक टन केला उत्पादित करता है) मिलकर पूरे विश्व के 40 से 50 प्रतिशत केला का उत्पादन करते हैं। हमारे यहाँ ‘राष्ट्रीय केला शोध संस्थान’ में 200 केला की प्रजातियाँ संरक्षित है।”

पर्यावरणविदों ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा है कि केला में पर्याप्त पोषक तत्व हैं पर आयरन इसकी मुख्य विशिष्टता नहीं है। वस्तुत: हल्दी, रामतिल, कमल के तना और अमचूर में केला की अपेक्षा 2000 से 3000 प्रतिशत ज्यादा आयरन हैं।” उन लोगों ने प्रधानमंत्री से आग्रह किया कि वे इस परियोजना को रद्द कर संसाधनों की बर्बादी को रोकें। क्योंकि भारत 80 मिलियन रूपये इस पर खर्च कर रहा है।

डॉ. वन्दना शिवा का कहना है” हमें दूरस्थ स्थानों पर बैठे किसी शक्तिशाली व्यक्ति द्वारा प्रायोजित व्यर्थ के प्रयोगों की आवश्यकता नहीं है जो हमारे जैव विविधता, खान-पान और खेती के बारे में नहीं जानता। वह अपने विनाशक शक्ति के द्वारा हमारी जैव विविधता, हमारे बीज सम्प्रभुता, ज्ञान सम्प्रभुता और स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहा है और इसके गंभीर परिणामों से उसे कुछ लेना-देना नहीं है। हमें इस बात की जरूरत है कि हम महिलाओं के हाथ में खाद्य सुरक्षा की शक्ति प्रदान करें। हर अंतिम स्त्री और हर अंतिम बच्चा प्रकृति प्रदत्त जैव विविधता के उपहार से अपना हिस्सा ग्रहण करे।”

जी.एम. फसलों की व्यावसायिक खेती की इजाजत की प्ररकिया को आसान बनाने के लिए केन्द्र सरकार 2009में एक विधेयक लायी जिसे ‘भारतीय जैव प्रौद्योगिकी नियंत्रक प्राधिकरण विधेयक 2009’ (बी.आर.ए.आई.) कहा जा रहा है। ‘ब्राई’ पूरी तरह से अलोकतांत्रिक, मनमाना तथा जी.एम. फसलों की दिशा में कार्य कर रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को साधने वाला विधेयक है। जी.एम. फसलों के बारे में अब तक नियामक संस्था पर्यावरण मंत्रालय रहा है, जिससे यह कार्य छीन कर विज्ञान मंत्रालय के अन्तर्गत तीन सदस्यीय समिति को सौंपने का प्रावधान किया जा रहा है। इससे जी.एम. फसलों की व्यावसायिक खेती के लिए अनुमति की प्रक्रिया आसान हो जायेगी तथा जनता के स्वास्थ्य, पर्यावरणीय नुकसान, आर्थिक एवं नैतिक प्रश्नों से जुदा करके इस मुद्दे को सिर्फ तकनीकी मुद्दा बना दिया जायेगा । इस विधेयक का चरित्र जनविरोधी, राष्ट्रविरोधी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों की चिंता करने वाला है। मई 2013 में 17 सांसदों ने विज्ञान और तकनीकी मंत्री जयपाल रेड्डी को पत्र लिखा है कि हाल-फिलहाल लोकसभा में प्रस्तुत भारतीय जैव प्रौद्योगिकी प्राधिकरण विधेयक को वापस लिया जाये। यह बिल जी.एम. फसलों की स्वीकृति के लिए एकल खिड़की प्रक्रिया विकसित करने का पक्षधर है। अगर यह विधेयक पारित हो गया तो बी.टी. बैगन जैसे जी.एम. फसलों को बाजार में उतारना अत्यन्त आसान हो जायेगा।

जी.एम. फसलों से फसलों की विविधता प्रभावित होगी तथा इन बीजों का निर्माण करने वाली कंपनियाँ अपने एकाधिकार के कारण किसानों से इसकी मनमानी कीमत वसूल करेगीं। कृषि पर संसद की स्थाई समिति ने अभी ‘कल्टीवेशन ऑफ जेनेटिकली मोडिफाईड फूड क्रॉप्स प्रॉस्पेक्टस एण्ड इफेक्ट्स’ नाम से संसद में सर्वसम्मति से एक रिपोर्ट पेश की है। इस संसदीय समिति के अध्यक्ष वासुदेव आचार्य ने गार्गी परसाई से बातचीत करते हुए कहा कि ”हमारे देश में 2200 प्रकार के बैगन हैं। अगर हम जी.एम. बैगन की अनुमति देते हैं तो बैगन की जो विविध प्रजातियाँ हैं वे प्रदूषित और विलुप्त हो जायेगीं, जैसा कि कपास के साथ हुआ। समिति के सदस्यों ने जब विदर्भ में यवतमाल की यात्रा की तो हमने किसानों से पूछा कि वे बी.टी. कॉटन को क्यों उगा रहें है, जिसकी लागत ज्यादा और मुनाफा कम है ? उन्होंने कहा कि उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है, क्योंकि वैकल्पिक बीज अब उपलब्ध नहीं हैं। प्रारंभ में मोंसैंटो के बी.टी. कॉटन के 450 ग्राम का पैकेट 1700 रूपये में बेचा जाता था। आन्ध्र प्रदेश सरकार ने जब इसे न्यायालय में चुनौती दी तो इसकी कीमत 750 रू. प्रति पैकेट की गयी पर हर पैकेट पर मोंसैंटो को बीज विकसित करने के एवज में 250 रूप की रॉयल्टी देनी पड़ी। पिछले वर्ष इस निजी बीज कंपनी के एकाधिकार के कारण एक पैकेट बीज 1200 से 2000 रुपये में बेची गयी क्योकि कंपनी के द्वारा जानबूझकर कृत्रिम अभाव पैदा कर कीमतों में वृध्दि की गयी। बीज कंपनियों का इसके पीछे एकमात्र उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है।”

जी.एम. फसलों ने प्राकृतिक स्वाभाविकता को नष्ट कर प्रकृति प्रदत्त चीजों के गुणों मे परिवर्तन और तोड़-फोड़ शुरू कर दी है। इसने कई तरह के प्राकृतिक, पर्यावरणीय और नैतिक सवाल खड़े कर दिये हैं। आज सुअरों में तेज वृध्दि के लिए मानवीय विकास को निर्धारित करने वाले जीनों का प्रवेश कराया जा रहा है। क्या सुअर के मांस खाने वाले इसे स्वीकार करेंगे? इसी तरह अन्य वनस्पतियों में अलग तरह के जीव-जन्तुयों के जीनों का प्रवेश कराया जा रहा है। जैसे सोयाबीन में मछली का जीन। क्या यह शाकाहारियों की दृष्टि से उचित होगा? प्रकृति की स्वाभाविकता से यह मानवीय छेड़छाड़ मनुष्य और प्रकृति दोनों के लिए विनाशक है।

बीज के क्षेत्र में कार्य कर रही मुनाफाखोर कंपनियों की सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि उनके द्वारा उत्पादित बीजों से पैदा हुई फसलों का उपयोग किसान अगली फसल के लिए बीज के रूप में कर सकता था। किसान अपने अन्य साथियों में भी इसे वितरित कर सकता था। इसका समाधान इन कंपनियों ने ‘टर्मिनेटर’ या ‘बाँझ’ बीजों के विकास में ढूँढ़ा। ‘टर्मिनेटर’ बीज जीन परिवर्तित ऐसे बीज हैं, जिनसे उपजायी गयी फसल को दुबारा बीज के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। ऐसा करने पर वह अंकुरित नहीं होगा या सीमित मात्रा में अंकुरित होगा। किसानों को हर बार बीज कंपनियों से बीज खरीदने को मजबूर होना पड़ेगा । यह पध्दति अपनी फसलों को सदियों से बीज के रूप में बचाकर रखने और इस्तेमाल करने की किसानों की स्वतंत्रता का हनन करता है। विश्वव्यापार समझौतों के तहत ‘ट्रिप्स’ प्रोटोकॉल के अन्तर्गत उत्पाद या पध्दति पर कंपनियों को बौध्दिक संपदा अधिकार प्राप्त है। इससे जीन चोरी और जीन डकैती को बढ़वा मिला है। ”इसका उदाहरण जीन पदार्थों जैसे कि बीजों के जर्मप्लाज्म को पेटेण्ट कराने का अधिकार है, जो पेटेण्ट कानून के अन्तर्गत किसानों के अपनी ही फसल से बीज लेकर दोबारा फसल बोने के अधिकार को खतरे में डाल देगा । यह जीन संसाधनों के स्वामित्वहरण की असाधारण कोशिश है जिन्हें वास्तव में किसानों, जंगल में रहने वाले स्थानीय समुदायों ने सदियों के दौरान खेती के प्रयोग द्वारा पैदा किया था। इस तरह की जैविक चोरी और जीन चोरी विश्वव्यापार संगठन के खिलाफ संघर्ष का बुनियादी मुद्दा बन गयी है।”

जी.ई. और जी.एम. फसलें मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक होने के कारण पूरी दुनिया में विवादास्पद हैं। यह बड़े कॉरपोरेशनों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कृषि अर्थतंत्र पर कब्जे का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। स्वास्थ्य और मानवीय जीवन को ध्यान में रखे बिना सिर्फ उच्च उत्पादकता के कारण इन फसलों के प्रयोग को वैध ठहराया जाता है। इस प्रक्रिया के कारण किसान अपने पारंपरिक बीजों को खोकर बीज की दृष्टि से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गुलाम बनते जा रहे हैं। ग्यारह देशों के ‘इंडिपेंडेंट साईंस पैनल’ के वैज्ञानिकों ने इन फसलों से होने वाली एलर्जी, बाँझपन, रोग प्रतिरोध क्षमता के ह्रास, जन्म विकार और गर्भपात जैसी समस्याओं के प्रति आगाह किया है। खुद हमारे देश में बी.टी. कॉटन के बीज और खल्ली खिलाने के कारण पशुवों में दूध की कमी और प्रजनन की समस्याएँ उभरने की शिकायतें मिली हैं। विश्व की पहली जी.एम. फसल टमाटर को अमेरिका में स्वास्थ्यगत कारणों से वापस ले लिया गया था।

”हाल के कुछ शोधों ने जी.एम. खाद्य पदार्थों की सुरक्षा से सम्बन्धित 90 दिनों के प्रयोगों पर आधारित मूर्खतापूर्ण दावों की पोल खोल दी है। ऐसा पाया गया है कि बहुत सारी स्वास्थ्यगत परेशानियाँ 90 दिनों के बाद उभर कर सामने आती हैं। यह शोध फ्रांस के केन विश्वविद्यालय के माइकऱो बॉयोलॉजी के प्रोफेसर गिलिस एरिक सेरेलिनी के दल के द्वारा किया गया है। ये प्रयोग दो वर्षों की अवधि में किये गये और ‘फूड एंड केमिकल टौक्सीकोलॉजी’ के जर्नल में प्रकाशित हुए। इस प्रयोग में उन मादा चूहों को जिन्हें जी.एम. खाद्य पदार्थ खिलाये गये, उनकी मृत्यु दर, उन मादा चूहों से दो गुणा और तीन गुणा ज्यादा थी, जिन्हें यह नहीं खिलाया गया। साथ ही उन चूहों में लीवर, किडनी और टयूमर से संबंधित स्वास्थ्य समस्याएँ बहुत ज्यादा थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि छोटी अवधि के परीक्षण और निरीक्षण कॉरपोरेट हितों को ध्यान में रख कर किये जाते हैं। ससेक्स विश्वविद्यालय के ‘साईंस पॉलिसी’ के प्रोफेसर एरिक माईलस्टोन का कहना है ”जी.एम. खाद्य पदार्थ की स्वीकृति के क्रम में सही तरीके से जाँच न किया जाना सबसे मौलिक समस्या है। सब कुछ जिस तरीके से होता है, उसे मैं इच्छा जनित विश्वास या धारणा के रूप में व्याख्यायित करना चाहूँगा।”

इन्डिपेन्डेन्ट साईंस पैनल” के वैज्ञानिकों का मानना है कि जी.एम. फसलों के जीन हानिकारक हैं। उदाहरण के लिए बी.टी. प्रोटीन जो कीड़ों को मारता है, उसमें शक्तिशाली इम्यूनोजीन और एलर्जी पैदा करने वाले जीन होते हैं। इन फसलों के कई ‘साईड इफेक्ट’ होते हैं। ये फसलें कई तरह की बैक्टीरिया और नये वायरस को जन्म देते हैं, जो कई तरह की बीमारियों के कारक बनते हैं और मनुष्य तथा पशुओं की कोशिकाओं की जीन प्रयिा को बाधित करते हैं।

हाल-फिलहाल यूरोप, अमेरिका, कनाडा और न्यूजीलैण्ड के 17 विशिष्ट वैज्ञानिकों ने भारतीय प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा है कि ”जी.एम. रूपान्तरण कई तरह की ऐसी नवीन जैव रासायनिक प्रकिऱयाओं को जन्म दे सकता है जो अनपेक्षित हो और जिनका कोई प्राकृतिक इतिहास न हो और जिनके बारे में नहीं कहा जा सकता कि वे सुरक्षित ही होंगे।” विशष कर बी.टी. बैगन के बारे में इस पत्र में कहा गया है कि ”बी.टी. जीव विष (टौक्सीन) प्रामाणिक रूप से शक्तिशाली इम्यूनोजीन है जो एलर्जी की प्रतिकिरया को जन्म देता है। जिन जानवरों को बी.टी. मक्का खिलाया गया उनमें प्रत्यक्ष रूप से विशाक्तता के लक्षण दिखायी पड़े । मोंसैंटो का अपना स्वतंत्र पुनर्मूल्यांकन और 90 दिनों का शोध अध्ययन भी यह दर्शाता है कि बी.टी. मक्के की फसल (90 दिनों के प्रयोग में भी) जानवरों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।”

बी.टी. बैगन को पशुओं को खिलाये जाने के बारे में महिको-मोंसैंटो के अपरिष्कृत शोध के आंकड़ो की फाईल भी इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसमें भी जानवरों के विविध अंगों – लीवर, किडनी, अगन्याशय में विशाक्तता के लक्षण पाये गये। यह विशेष रूप से ध्यान दिये जाने योग्य तथ्य है कि यह प्रतिकूल प्रभाव मुख्य रूप से 90 दिनों तक खिलाये जाने के परिणाम पर आधारित हैं। वे जो जीवन भर इस उत्पाद का उपभोग करेंगे, उनके जीवन की सुरक्षा गंभीर रूप से चिंता पैदा करती है।”08

जी.एम. फसलों का नकारात्मक पक्ष यह है कि इसके ट्रांसजेनिक प्रदूषण से दूसरे पौधों और वनस्पतियों के भी प्रदूषित होने का खतरा मौजूद रहता है। ‘इंडिपेंडेंट साईंस पैनल’ (स्वतंत्र विज्ञान मंच) में एकत्र हुए कई वैज्ञानिकों ने जी.एम. फसलों पर तैयार एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के निष्कर्ष में कहा है – ”अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रांसजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जी.एम. फसलों और गैर जी.एम. फसलों का सहअस्तित्व नहीं हो सकता। जी.एम. फसलों को अब दृढ़ता से अस्वीकृत कर देना चाहिए। जानी-मानी बायोकेमिस्ट और पोषण विशेषज्ञ प्रोफेसर सूसन बारडोक्ज ने कहा है ‘अब तक की सब तकनीकें ऐसी थीं जो नियंत्रित हो सकती थीं पर मानव इतिहास में जी.एम. पहली तकनीक है जिससे खतरा उत्पन्न हो गया हो तो इस क्षति को रोका नहीं जा सकता है, क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती है।”09

यह एक दुष्प्रचारित तथ्य है कि जी.एम. फसलों से ही उत्पादकता बढ़ायी जा सकती है। कृषि पर संसद की स्थाई समिति के अध्यक्ष वासुदेव आचार्य का कहना है कि 1951-52 में हमारे देश में मात्र 52 मिलियन टन अनाज का उत्पादन होता था पर आज बिना जी.एम. टेक्नॉलॉजी के 257 मिलियन टन अनाज का उत्पादन हो रहा है । यह सही है कि कभी भी नयी टेक्नॉलॉजी का विरोध नहीं किया जाना चाहिए पर यह चंद कंपनियों की अपेक्षा देश के उपभोक्ताओं तथा किसानों के हित में होना चाहिए। अगर जी.एम. फसलें हमारे देश के बाजार में उतारी जाती हैं तो उसकी बहुस्तरीय जाँच एवं लेवलिंग होनी चाहिए। बिना किसी मजबूत बहुअनुशसनीय विनियामक व्यवस्था के जी.एम. फसलों की न तो परीक्षण खेती और न ही व्यावसायिक खेती की अनुमति दी जानी चाहिए। ऐसे फसलों को खाद्य बाजार में आयातित भी नहीं किया जाना चाहिए। यह दुर्भाग्यजनक है कि चंद कंपनियों के व्यापारिक हितों को ध्यान में रखकर कुछ स्वार्थी तत्व जनता के हितों को पीछे धकेल कर जी.एम. फसलों की वकालत कर रहें है। सुप्रीम कोर्ट ने देश के शीर्ष जैव तकनीक वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव को ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रुवल कमेटी (जी.ई.ए.सी.)’ के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया है। वे ‘सेंटर फॉर सेल्यूलर मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी’ के पूर्व निदेशक रह चुके हैं। उन्होंने नवम्बर 2009 में ट्रिब्यून में प्रकाशित एक बयान में कहा था ”चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को जी.एम. फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें। इन प्रयासों का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि पर नियंत्रण प्राप्त करना है।”

जीन संवर्ध्दित फसलों की खुली प्रायोगिक खेती पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ समिति की अंतिम रिपोर्ट अभी आना शेष है पर उसकी अंतरिम रिपोर्ट से जीन अभियंत्रिकी और जैव विविधता से जुड़े 51 अन्तर्राष्ट्रीय स्वतंत्र वैज्ञानिकों ने अपनी सहमति व्यक्त की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बी.टी. फसलों की खुली प्रायोगिक खेती को 10 वर्षों तक के लिए स्थगित कर दिया जाये, जब तक समुचित नियामक प्रक्रिया और सुरक्षा मानकों को निर्धारित न कर लिया जाये। जी.एम. फसलों की स्वीकृति के लिए स्वार्थी तत्व और भारत सरकार के मंत्रालय किस तरह लालायित हैं, इसका उदाहरण कई स्तरों पर देखा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ समिति ने जब अंतरिम रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी तब कृषि मंत्रालय ने इस पर आपत्ति व्यक्त की कि उसके प्रतिनिधि की अनुपस्थिति में समिति ने यह रिपोर्ट दी है। कोर्ट ने ‘इंडियन कॉउन्सिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च’ के पूर्व डायरेक्टर जनरल आर.एस. परोदा को समिति के छठवें सदस्य के रूप में नियुक्त किया। पर डॉ. परोदा पर आरोप है कि उनकी संस्थाओं ने मोंसैंटो और उसके भारतीय सहयोगियों से आर्थिक अनुदान प्राप्त किया है। स्वाभाविक है ऐसे में वे मोंसैंटो के हितों की रक्षा करेंगे।

जैव तकनीक से ग्रामीण भारत के विकास पर जोर

जैव तकनीकी को ग्रामीण भारत के स्थिर विकास में किस तरह से उपयोग किया जा सकता है। इस विषय को लेकर आरोन के शासकीय कॉलेज में दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया। जिसमें विभिन्न विश्वविद्यालयों से आए ४० जैव विज्ञानियों ने अपने शोध पत्र पढ़े। इनके निष्कर्ष को लेकर एक बुकलेट तैयार की गई है जो मप्र शासन के पास भेजी जाएगी। जहां से ग्रामीण विकास के लिए रणनीति तैयार हो सकेगी। रविवार को सत्र का समापन हुआ। इस दौरान उत्कृष्ट रिसर्च पेपर के लिए पुरस्कृत भी किया गया।
आरोन कॉलेज प्राचार्य एके मुदगिल ने बताया कि रविवार को सेमिनार के तीन चरण हुए जिसमें सबसे पहले मानव कल्याण के लिए जैव तकनीकी का उपयोग, दूसरे चरण में जैव तकनीकी का वन प्रबंधन में उपयोग एवं तीसरे चरण में जैव तकनीकी का कृषि के क्षेत्र में उपयोग विषय पर शोध पत्र पढ़े गए।
प्रोफेसरों ने बताया कि अमरबेल से पीलिया को कैसे ठीक किया जा सकता है। किस तरह बाजरा को खाने के योग्य बनाया जा सकता है। बीड़ी बनाने वाली महिलाओं के जीन में किस तरह के परिवर्तन आते हैं जिससे उन्हें कैंसर हो जाता है इसे किस तरह से रोका जा सकता है। इसी तरह वन प्रबंधन में कौन- कौन से पौधे क्या लाभ पहुंचा सकते हैं। विलुप्त प्रजातियों को टिशु कल्चर के माध्यम से कैसे बढ़ाया जा सकता है। विलुप्त हो रहे जानवरों की प्रजातियों को किस तरह से प्रजनन कराया जाए और इनके संयोग से कैसे नई प्रजाति तैयार की जा सकती है।
400 रुपए में 10 हजार की खाद
इसी तरह कृषि के क्षेत्र में गोबर में किस तरह के वैक्टीरिया डाले जाएं, जिनसे ४०० रुपए की गोबर से १० हजार रुपए की खाद पैदा की जा सके। यूरिया का पूरा उपयोग पौधे क्यों नहीं कर पा रहे हैं और इसे पूरा उपयोग करने के लिए कौन से जीवाणु डाले जाएं, बीटी बैगन में क्या बदलाव किया जाए, मशरूम में क्या बदलाव लाया जाए आदि सहित विभिन्न विषयों पर शोध पत्र पढ़े गए।
रिसर्च पेपर हुए पुरस्कृत
सेमिनार के दौरान बेहतरीन शोध पत्र तैयार करने के लिए डा. रेखा शर्मा कर्नाल, डा. एनजी खोपरीकर छिंदबाड़ा, डा. रविंद्र तिवारी सागर, डा. पुनीत पांडे देहरादून, मयंक टिनुगुरिया भोपाल, डा. विवेक शर्मा दिल्ली और अंकिता सुहाग भोपाल, अमृता रिछारिया ग्वालियर के शोध पत्र पुरस्कृत किए गए।

तरल जैव-उर्वरकों की तकनीक का व्यवसायीकरण

आनन्द कृषि विश्वविद्यालय (एएयू), आनन्द ने तरल जैव उर्वरकों का फॉर्मूला तैयार किया है जो रासायनिक उर्वरकों का सुरक्षित एवं पर्यावरण अनुकूल विकल्प है। तरल जैव उर्वरक (एलबीएफ) में उपयोगी सूक्ष्म जीवाणु होते हैं जो वातावरण से नाइट्रोजन के अवशोषण को बढ़ाते हैं और अघुलनशील फॉस्फेट को घुलनशील बना उसे पौधों को उपलब्ध कराते हैं। विश्वविद्यालय द्वारा ‘अनुभव तरल जैव उर्वरक’ के नाम से एलबीएफ किसानों को बेचा जा रहा है। अनुभव एलबीएफ देशी जीवाणुओं अर्थात एजोटोबैक्टर क्रूकोक्सम, अजोस्पिरिलम लाइपोफेरम और बैसिलस कोआगुलन्स पर आधारित है।

किसानों तक इसकी पहुंच बढ़ाने के उद्देश्य से एएयू ने अपनी व्यवसायिक योजना एवं विकास इकाई (बीपीडीयू) द्वारा सरकारी निजी सहभागिता (पीपीपी) के अन्तर्गत एलबीएफ के व्यवसायीकरण का लाइसेंस गुजरात की तीन कम्पनियों को प्रदान किया है। बीपीडीयू, एएयू, आनन्द की भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), नई दिल्ली की राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेष परियोजना (एनएआईपी) के अन्तर्गत विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित एक विशेष परियोजना है।

कृषि मंत्रालय, गुजरात सरकार के कृषि महोत्सव के दौरान कृषि किट के एक भाग के रूप में एएयू ने 50,000 लीटर एलबीएफ की पूर्ति किसानों में बटवांने के लिए गुजरात सरकार को की है। गुजरात के किसानों ने विभिन्न फसलों जैसे कपास, केला, आलू, गुलाब, हल्दी, पपीता आदि में एलबीएफ के प्रयोग से बेहतर फसल और गुणवत्ता के परिणामों की सूचना दी है।
उत्पादन में वृद्धि व रासायनिक उर्वरकों की तुलना में कम लागत के रूप में तरल जैव उर्वरक के विशिष्ट लाभ हैं। रासायनिक उर्वरकों के मृदा के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं। मृदा के रासायनिक गुणों में परिवर्तन से वह भविष्य में पौधे के विकास में सहायक नहीं रहती है।

पूर्व में, जैव उर्वरक वाहक (ठोस) आधारित होते थे जिनमें वाहक तत्व के रूप में लिग्नाइट का प्रयोग किया जाता था। लिग्नाइट उत्पादन कार्य में लगे मजदूरों के लिए हानिकारक होता है। साथ ही, इन उर्वरकों को केवल 6 माह तक सुरक्षित रखा जा सकता था और इनके परिवहन में भी समस्याओं का सामना करना पड़ता था। वहीं दूसरी ओर, एलबीएफ को कम से कम एक वर्ष तक सुरक्षित रखा जा सकता है, इसके उत्पादन में लगे कामगारों को कोई खतरा नहीं है और इसको आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान भेजा जा सकता है। इसके साथ-साथ, जैविक कृषि के एक भाग के रूप में एलबीएफ का प्रयोग ड्रिप सिंचाई में भी किया जा सकता है।

एलबीएफ के विकास और इसके व्यवसायीकरण के लिए डॉ. आर.वी. व्यास, अनुसंधान वैज्ञानिक (सूक्ष्मजैविकी) और श्रीमती एच.एन. शेलत, सहयोगी अनुसंधान वैज्ञानिक (सूक्ष्मजैविकी) को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की ओर से ‘प्रशंसा पत्र’ प्रदान किया गया है।

(स्रोतः सहायक संस्था डीएमएपीआर, आनन्द और बीपीडीयू, एएयू से प्राप्त जानकारी के साथ एनएआईपी मास मीडिया परियोजना, डीकेएमए, आईसीएआर

‘फिर से चिपको आंदोलन की ज़रूरत’

पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश का bbc hindi में छपा लेख

केंद्रीय ग्रामीण विकासमंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि देश में जिस रफ़्तार से जंगल काटे जा रहे हैं उसे देखते हुए कई राज्यों में एक बार फिर चिपको आंदोलन शुरू करने की ज़रूरत है.किसी केंद्रीय मंत्री की ओर से पर्यावरण बचाने के लिए जनांदोलन का आह्वान किया जाना अपने आप में महत्वपूर्ण है.पर्यावरण मंत्रालय से हटाए जाने के बाद जयराम रमेश ने सार्वजनिक मंच से स्वीकार किया है कि अवैध खनन एक बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है और इसके लिए दबाव डालने वालों में हर राजनीतिक पार्टी के लोग शामिल हैं.उन्होंने कहा, “ग़ैरक़ानूनी खनन देश भर में बहुत बड़ी समस्या बन गई है. मैं बता नहीं सकता हूँ कि कहाँ-कहाँ से दबाव आते हैं. इसका (दबाव का) कोई राजनीतिक रंग नहीं है. सब शामिल हैं.”रमेश ने कहा, “आज जिस तरह जंगल काटे जा रहे हैं, उसे देखते हुए उत्तराखंड ही नहीं कई राज्यों में चिपको आंदोलन की ज़रूरत है.”

दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में प्रसिद्ध पर्यावरणविद और चिपको आंदोलन के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट की पुस्तक ‘पर्वत पर्वत, बस्ती बस्ती’ के लोकार्पण के मौक़े पर जयराम रमेश पर्यावरण के विनाश ओर उसके लिए ज़िम्मेदार लोगों पर खुल कर बोले.

कड़ा रुख़

जयराम रमेश को हाल ही में हुए मंत्रिमंडल फेरबदल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पर्यावरण मंत्री के पद से हटा कर ग्रामीण विकास मंत्रालय का ज़िम्मा सौंप दिया था.

पर्यावरण मंत्री के तौर पर जयराम रमेश के कई फ़ैसलों पर विवाद हुआ था और कॉरपोरेट लॉबी को उनके ये फ़ैसले रास नहीं आए थे.उन्होंने उड़ीसा की पोस्को परियोजना से लेकर नियमगिरि पर्वत में वेदांता कंपनी को बॉक्साइट खनन की अनुमति देने के मामले में सख़्त रुख़ अपनाया था.महाराष्ट्र में लवासा परियोजना ओर आदर्श सोसाइटी के मुद्दे पर भी उन्होंने कड़ा रुख़ अपनाया था.तभी यह मान जाने लगा था कि मनमोहन मंत्रिमंडल में पर्यावरण मंत्री के तौर पर जयराम रमेश के दिन गिने-चुने ही बचे हैं.पुस्तक लोकार्पण में देर से पहुँचने का कारण बताते हुए जयराम रमेश ने कहा कि देर इसलिए हो गई क्योंकि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक का फ़ोन आ गया था.जयराम रमेश ने कहा, “निशंक बोले जाते जाते आप यह क्या बवाल कर गए हैं? आपने गोमुख से उत्तरकाशी तक के इलाके को इको-सेंसिटिव (पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील) घोषित कर दिया है. यह ख़तरनाक है. इससे तो विकास का काम रुक जाएगा. इसलिए कांग्रेस ओर भाजपा ने मिलकर प्रस्ताव किया है कि हम यह होने नहीं देंगे.”

उत्तराखंड में गंगा नदी के उदगम गौमुख से उत्तरकाशी तक की स्थिति को देखते हुए जयराम रमेश ने पर्यावरण मंत्री के तौर पर इस क्षेत्र को संवेदनशील घोषित किए जाने की अधिसूचना जारी कर दी थी. इसका अर्थ यह हुआ की इस इलाक़े में अंधाधुंध निर्माण कार्य नहीं हो सकता.

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को इसीलिए रमेश से नाराज़गी थी.

जयराम रमेश ने चंडी प्रसाद भट्ट, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, शेखर पाठक ओर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पुष्पेश पंत की मौजूदगी में श्रोताओं से भरे हाल में कहा, “उत्तराखंड में ऐसी कई जल विद्युत परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जिन्हें पर्यावरण के लिहाज से अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी.”

आंदोलन

रमेश ने कहा कि किसी भी परियोजना में कभी नदी की अविरल धारा को नहीं भूलना चाहिए. उन्होंने कहा, “सिर्फ उत्तराखंड में ही 70 जल विद्युत परियोजनाएं हैं, जिनके बारे में हमें यह नहीं मालूम कि इनका पर्यावरण पर क्या असर होगा.”

जयराम रमेश ने कहा, “हम नदियों में पानी देखना चाहते हैं, सुरंगें नहीं. एक समय आएगा जब उत्तराखंड में नदियाँ नहीं सिर्फ़ टनल ही दिखाई देंगी.”

सभा में चंडी प्रसाद भट्ट ने चिपको आंदोलन के बारे में वहाँ मौजूद लोगों को बताया कि इस आंदोलन के केंद्र में आदमी था.

उनकी किताब पर्वत पर्वत, बस्ती बस्ती दरअसल उनके यात्रा वृत्तांतों का संकलन है, जिसके ज़रिए उन्होंने कश्मीर से केरल और अरुणाचल से गोदावरी और पश्चिमी घाट तक जल, जंगल ओर ज़मीन की अपनी समझ का दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है.

सम्मेलन में इतिहासकार ओर पर्यावरणविद शेखर पाठक ने अपने छात्र जीवन को याद किया, जब उत्तराखंड में चिपको आंदोलन से उनका जुड़ाव बना.

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने चंडी प्रसाद भट्ट को हिमालय के पर्यावरण का ऐसा जानकार बताया, जो पर्यावरण के अर्थशास्त्रियों को हमेशा ग़लत साबित करते रहे हैं.

 http://www.bbc.co.uk/hindi/mobile/india/2011/07/110719_jairam_pressure_pp.shtml

गॉधी और पर्यावरण आंदोलन

प्रसिद्ध इतिहासकार और गॉधीवादी रामचंद्र गुहा का प्रतिलिपि(व्दिभाषिक साहित्यिक पत्रिका) में लेख

पुणे के साथ आलोचनात्मक एवं सामाजिक सुधार की एक परम्परा जुड़ी हुई है। एक ऐसी अद्वितीय परम्परा जो शायद ही किसी भारतीय शहर के साथ जुड़ी हुई हो। यद्यपि मैं एक दशक से अधिक समय के बाद पुणे वापस आया हूँ, फिर भी इस बीच के समय में मेरी जिन्दगी के हर क्षण ने इस परम्परा को महसूस किया है। पिछले १० वर्षों से मेरा घनिष्ठ बौद्धिक रिश्ता नागरिक चेतना से जुड़े पर्यावरणवादी माधव गाड़गिल के साथ रहा है। यह छवि इनके वृहद् अध्ययन से मेल खाती है। माधव ने १९८२ के परिसर व्याख्यान का उद्घाटन संबोधन दिया था। वह भारतीय पुनर्जागरण के अद्वितीय व्यक्तित्व डी.आर.गाडगिल के पुत्र है, जिन्होंने अपनी जिन्दगी का अधिकांश समय इसी शहर में बिताया। वरिष्ठ गाडगिल की पीढ़ी के दो विद्वान बुद्धिजीवियों में डी.डी. कौसाम्बी एवं इरावर्ती कर्वे थे, जिन्हें उनके कार्यों और सम्मान के लिए मैंने और माधव ने हमारा पारिस्थितिकीय इतिहासद फिशर लैण्ड समर्पित किया है। वेरियर एल्विन वह तीसरे सज्जन थे, जिन्हें यह पुस्तक समर्पित थी। एल्विन पर मेरा आजकल का शोध कार्य आधारित है। एल्विन के भी पुणे के साथ घनिष्ठ संबंध थे। वे यहाँ भारत के अपने प्रारंभिक वर्षों के दौरान थे। उनका बाद का काम आदिवासियों के बीच था जो प्रमुख रूप से भारत सेवक संघ के ए.वी.ठक्कर से प्रभावित था।

हमारे मेजबानों ने इस अवसर पर पूना की इस महान परम्परा का ताजा उदाहरण प्रस्तुत किया है। परिसर जैसे समूह अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन को परिपक्व बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसलिए मैं यहाँ आकर १९८३ के लिए परिसर व्याख्यान देने में सम्मानित महसूस करता हूँ।

व्याख्यान इस प्रश्न का उतर पूछता और खोजता है कि –

क्या महात्मा गाँधी प्रारम्भिक पर्यावरणवादी थे?

गाँधी का जीवन व कार्य भारत में समकालीन पर्यावरणीय आंदोलन पर विशेष प्रभाव रखता है। वास्तव में यह आंदोलन अप्रैल, १९७३ को चिपको आंदोलन के साथ शुरू हुआ। चिपको के शुरूआती छपे लेखों में एक प्रतिबद्ध पत्रकार ने घोषित किया कि गाँधी के भूत ने हिमालय के वृक्षों को बचाया है। तब से महात्मा गाँधी पर्यावरणीय आंदोलन के संरक्षक संत की भांति माने जाते हैं, कभी कभी नहीं भी। चिपको आंदोलन से नर्मदा बचाओ आंदोलन तक पर्यावरणीय कार्यकर्ता अहिंसक प्रतिरोध की गाँधीवादी तकनीकों पर बहुत अधिक निर्भर हैं तथा भारी औद्योगिकरण के खिलाफ गाँधी के विचारों से इन्होंने काफी कुछ लिया है। पुनः आन्दोलन के कुछ प्रसिद्ध चेहरे उदाहरण के लिए – चण्डी प्रसाद भट्ट, सुंदरलाल बहुगुणा, बाबा आम्टे और मेधा पाटकर बारम्बार गाँधी के प्रति ऋण को रेखांकित करते हैं।

कोई भी व्यक्ति इसके अलावा अन्य प्रभावों की उपेक्षा नहीं कर सकता है। भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन की विशाल छत के नीचे अनेक समूह हैं जो गाँधी के साथ छोटा-सा जुड़ाव रखते हैं। मार्क्सवाद की पृष्ठभूमि से उभर कर आए केरल शास्त्र साहित्य परिषद जैसे संगठन के उदाहरण के बारे में सोचिए, धर्मविज्ञानी मुक्ति तथा आत्मनिर्भरता या स्वयं-सहायता की परम्पराओं से अलग-अलग प्रभावित है। फिर भी यह कहना शायद ही उचित प्रतीत होता है कि पर्यावरणीय आंदोलन पर सर्वाधिक एकमात्र महत्वपूर्ण प्रभाव गाँधी के जीवन और व्यवहार का है।

मुझे आज के दो असाधारण गाँधीवादी पर्यावरणविदों – चण्डी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा के कार्य का अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ है। भट्ट और बहुगुणा के बारे में मेरी व्यक्तिगत जानकारी बहुत कम है लेकिन मैं उनके जीवन और कार्य के बारे में कुछ अधिक जानकारी चिपको आंदोलन पर अपने शोध के दौरान प्राप्त कर सका, जिस आंदोलन से यह लोग जुडे़ हुए थे। जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक द अनव्हाइट वुड में तर्क दिया है कि चिपको आंदोलन अपने आप में एक गाँधीवादी आंदोलन है – यह सोचना भ्रामक है। इस आंदोलन की जड़ें किसानों के अपने वन अधिकारों की रक्षा हेतु किए गए विरोधों में मजबूती से जमी हुई है। तथापि आंदोलन के प्रसिद्ध नेताओं भट्ट और बहुगुणा ने स्वयं गाँधीवादी रचनात्मक कार्यों की श्रेष्ठ परम्परा का उदाहरण प्रस्तुत किया हे।

चिपको के शहरी समर्थक प्रायः चण्डी प्रसाद भट्ट या सुंदरलाल बहुगुणा, किसी के भी समर्थक रूप में पहचाने जा सकते हैं लेकिन वास्तव में इन दोनों व्यक्तियों की प्रसिद्धि के अन्य बहुत कारण है। भट्ट और उनका संगठन दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल ने चिपको के उद्भव में शुरूआती भूमिका निभायी थी। इसकी तकनीकें स्वयं भट्ट ने मंडल के ग्रामवासियों को बतलायी थी। व्यावसायिक फैक्ट्रियों के विरूद्ध प्रदर्शन को समन्वित करने से लेकर डीजीएसएम ने पर्यावरणीय पुनरूद्धार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इसने अलकनंदा के गाँवों में वृक्षारोपण कार्य के लिए महिलाओं को संगठित करने में पहल की। जहाँ इसके वृक्षारोपण एवं संरक्षण कार्यक्रमों ने वन विभाग की खर्चीली योजनाओं की तुलना में ज्यादा बेहतरी से कार्य किया है। चूंकि चण्डी प्रसाद भट्ट की गिनती चिपको के अगुआ के रूप में होनी चाहिए अगर हम उपाधि किसी एक व्यक्ति को देना चाहे सुंदरलाल बहुगुणा के सामाजिक कार्यों का भी इतिहास है और यह इतिहास चिपको से भी पीछे जाता है।

वह और उनकी पत्नी विमला सरला देवी कैथरीन मैरी हैलमैन द्वारा पहाड़ियों में प्रशिक्षित किए गए पहले सर्वोदय कार्यकर्ताओं के समूह में से थे। सरला देवी महात्मा गाँधी की प्रसिद्ध शिष्या थी जो १९४० के दशक में कुमायूं की ओर आ गयी। बहुगुणा ने उनके घर भागीरथी घटी में १९७७ और १९८० के मध्य अनेक महत्वपूर्ण चिपको आंदोलन के विरोध प्रदर्शन आयोजित किए। जब से भट्ट और उनके सहकर्मी अपना ध्यान हिमालय के पारिस्थितिकीय पुनरूद्धार पर केन्द्रित कर चुके हैं, बहुगुणा भी चिपको आंदोलन के संदेश को पहाड़ियों से आगे ले जाने का निश्चय कर चुके हैं। एक अथक पदयात्री के रूप वह अपनी से आधी उम्र के लोगों के जोश के साथ भारत और विदेशों में व्यापक भ्रमण कर चुके हैं। वह एक आकर्षक वक्ता भी है, अपनी इस क्षमता के सहारे वह शहरी प्रबुद्ध वर्ग को अनियंत्रित भौतिकवाद के खतरों के प्रति सचेत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं ।ये दोनों चिपको आंदोलन के नेता मेरी पुस्तक में हर तरह से आज भारत के जागृत लोगों में से है। गाँधी का उदाहरण दोनों व्यक्तियों के जीवन को प्रणवायु देता है लकिेन मैं सोचता हूँ कि हर एक ने गाँधी से कुछ अलग ग्रहण किया है। बहुगुणा औद्योगिक समाज की गंभीर आलोचना करते समय गाँधी की हिन्द स्वराज के अनुसरण के करीब होते हैं। इस छोटी सी पुस्तक हिन्द स्वराज में आधुनिक सभ्यता की आलोचना की गयी है। जैसा कि बहुगुणा के भ्रमण दौरों एवं व्याख्यानों से अभिव्यक्त होता है कि बहुगुणा व्यक्तियों की चेतना को एक सारमय अपील कर रहे हैं, उन्हें उपभोक्तावाद के सशपथ त्याग एवं सादे जीवन की ओर लौटने के लिए तर्क देते हैं। इनके मुकाबले भट्ट और उनका समूह केन्द्रीकृत विकास के स्थानापन्न टिकाउ विकास को व्यवहार रूप में लाने के लिए कार्य कर रहे हैं। इस दृष्टिकोण से वह गाँधी के साबरमती एवं वर्धा आश्रमों की श्रेणी की ओर उन्मुख दिखाई देते हैं। चण्डी प्रसाद के कार्यों ने महात्मा गाँधी के आदर्श ग्राम स्वराज्य या ग्राम निर्भरता को एक नया पारिस्थितिकीय अर्थ देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

मैं चण्डी प्रसाद और सुंदरलाल के बारे में केवल इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरा चिपको आंदोलन का अध्ययन मुझे इनके कार्यों के ज्यादा करीब लाया। आप में से कोई भी जो नर्मदा बचाओं आंदोलन से जुड़ा रह चुका है, वह इन नेताओं के जीवन और कार्यों में गाँधी की भावना का कुछ हिस्सा अवश्य देख चुका होगा। चिपको और नर्मदा आंदोलन विशिष्ट है लेकिन किसी भी तरह गाँधी की जीवंत धरोहर के अलग उदाहरण नहीं है क्योंकि यह भावना समकालीन पर्यावरण आंदोलन में निहित है।

फिर भी आज के पर्यावरणवादी यह दावा नहीं करते हैं कि वे गाँधी के उदाहरण का अनुसरण कर रहे हैं वे तर्क देते हैं  कि महात्मा ने खुदी ही आधुनिक औद्योगिक समाज के पारिस्थितकीय संकट का अनुमान लगा लिया था। यह प्रश्न  कि क्या गाँधी प्रारंभिक पर्यावरणवादी थे, इसका उतर गाँधी के अनुयायी प्रायः सकारात्मक रूप से देते है लेकिन उनके पास समर्थन के लिए बहुत कम सबूत होते हैं। ऐसा मान लिया गया है कि गाँधी हमारे पर्यावरणीय संबंधी मुद्दों को गंभीरता से ले रहे थे लेकिन उनके सम्पूर्ण लेखन में से केवल हिंद स्वराज ऐसा है जिसमें उनके पर्यावरणविद वाले रूप को देखा जा सकता है। आज के एक प्रतिष्ठित गाँधीवादी ने यह दावा किया है कि गाँधी विकास की वर्तमान पद्धति कैसे पुरूष द्वारा प्रकृति का शोषण है। इसे समझाते हुए विकास पर एक वैकल्पिक दृष्टिकोण देते हैं। हिंद स्वराज के अभी हाल ही के अपने अध्ययन के बाद मैंने खुद को इस निर्णय से असहमत पाया। आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति की निपुणतापूर्वक निंदा के बावजूद यह पुस्तक प्रकृति के प्रति पुरूष के रिश्तों के बारे में कुछ भी नहीं कहती। फिर भी यह विकास के वैकल्पिक दृष्टिकोण पर थोड़ा बहुत प्रकाश डालती है।

लेकिन शायद हिंद स्वराज इन बातों को तलाशने के लिए उचित जगह नहीं है। यह किताब वास्तव में तब लिखी गई थी जब गाँधी दक्षिणी अफ्रीका में थे। १९१४ में अपने भारत आगमन पर गाँधी ने अपने आप को तत्काल गाँवों की सामाजिक व आर्थिक स्थितियों का प्रत्यक्ष परिचय पाने में लगा दिया। भारतीय गाँवों में उनकी यात्राओं के द्वारा तथा चंपारण व खेड़ा, १९१७ व १९१८ में, किसानों द्वारा प्रारंभिक सत्याग्रहों के दौरान गाँधी ने उपनिवेशवाद को एक आर्थिक शोषण और जातीय विभेद की व्यवस्था की तरह स्पष्ट रूप से देखा। इनका अनुभव वह दक्षिणी अफ्रीका में कर चुके थे।

भारतीय गाँवों में अपनी तल्लीनता तथा उपनिवेशवाद की इस गहरी समझ के द्वारा गाँधी ने यह देखा कि औद्योगिक विकास के पश्चिमी नमूने के साथ बराबरी करना भारत के लिए असंभव होगा। एक साथ यह भी याद रखना चाहिए कि वे कहीं भारत के लिए विकास का वैकल्पिक नमूना पेश नहीं करते है। एक तो उनका चिंतन व्यवस्थित नहीं था और दूसरा वह राजनैतिक गोलबंदी व सामाजिक सुधारों के ज्यादा जटिल सवालों के साथ चिंतामग्न थे। फिर भी,, वैकल्पिक रास्ते के कुछ साक्ष्य उनके १९२०, ३०, ४० के लेखन में बिखरे रूप में है। अब मैं इसी लेखन की ओर आ रहा हूँ।

गाँधी का भारत को अंधाधुन औद्योगिकरण से बचाना प्रायः नैतिक आधारों के नाम पर था, मुख्य तौर पर आधुनिक समाज की स्वार्थता और प्रतिस्पर्धा से। परन्तु उनमें स्पष्टतया पारिस्थितिकीय धीमा स्वर मौजूद था। यंग इंडिया के २० दिसम्बर १९२८ के इस प्रसिद्ध उद्धरण को लेते है-

ईश्वर न करे कि भारत भी कभी पश्चिमी देशों के ढंग का औद्योगिक देश बने। एक अकेले इतने छोटे से द्वीप (इंग्लैण्ड) का आर्थिक सामा्रज्यवाद ही आज संसार को गुलाम बनाए हुए है। तब ३० करोड़ आबादी वाला हमारा समूचा राष्ट्र भी अगर इसी प्रकार के आर्थिक शोषण में जुट गया तो वह सारे संसार पर एक टिड्डी दल की भाँति छाकर उसे तबाह कर देगा।

दो वर्ष पूर्व, गाँधी ने दावा किया था कि-

भारत को इंग्लेण्ड और अमेरिका जैसा बनाना धरती के कुछ स्थानों एवं नस्लों को शोषण के लिए खोजने जैसा होगा। जैसा कि यह प्रतीत होता है कि पश्चिमी राष्ट्र यूरोप से बाहर सभी ज्ञात नस्लों को शोषण के लिए बाँट चुके है तथा अब बाँटने के लिए कोई नई दुनिया नहीं है।

गाँधी ने यह मर्मस्पर्शी सवाल पूछा-

पश्चिम की नकल करने के प्रयास में भारत का भविष्य क्या हो सकता है?

(यंग इंडिया, ०७-१०-१९२६)

इस प्रश्न का उत्तर अब स्पष्टतः कष्टप्रद है। पिछले कुछ दशकों में हम असंदिग्ध रूप से ‘भारत को इंग्लैण्ड और अमेरिका की तरह बनाने’ का प्रयास कर चुके है। संसाधनों एवं बाजारों पर पहुँच का जो आनंद इन दोनों राष्ट्रों ने अपने आप को औद्योगीकृत करते समय शुरूआती समय में उठाया था, इस पहुँच के बिना भारत आज मजबूर होकर अपने लोगों एवं पर्यावरण के शोषण पर निर्भर हो चुका है। ग्रामीण क्षेत्रों के संसाधनों को शहरी वनों, जल के परिवर्तन ने पर्यावरणीय अवनति की प्रकिया को तेज किया है। इस संदर्भ में चिपको और नर्मदा आंदोलन विशिष्ट है लेकिन गाँधी की जीवंत धरोहर के अलग उदाहरण किसी भी तरीके से नहीं है जैसा कि इसने समकालीन पर्यावरणीय आंदोलनों के रूप में ग्रहण किया है। साथ ही यह सम्भ्रांत लोग ग्रामीणों और आदिवासी समुदायों को उनके संसाधनों तक उनकी पहुँच और प्रयोग के परम्परागत अधिकार से वंचित कर चुके है। इस बीच यह आधुनिक क्षेत्र भारत की शेष संसाधन सीमाओं- उत्तर पूर्व और अंडमान निकोबार द्वीप समूहों- में आकामक रूप से जा चुका है।

शायद गाँधी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा। जैसा कि उन्होंने पहचाना था कि शहरी – औद्योगिक विकास के प्रति आग्रह भीतरी प्रदेश के एकतरफा शोषण का ही परिणाम दे सकेगा। गाँधी १९४६ में इसे अपने चिर परिचित अंदाज के साथ प्रकट कर चुके थे :

ग्रामीण रक्त ही वह सीमेंट है जिससे शहरों की इमारतें बनती है।

(हरिजन, २३-०६-१९४६)

इससे पूर्व एक अवसर पर गाँधी अपने चरित्र के अनुसार सभ्य किंतु सबल तरीके से इंदौर में एक सभा को संसाधनों के केन्द्रीकरण की चेतावनी दे चुके थे जिस पर शहरी जीवन आधारित हो चुका था। उन्होंने टिप्पणी की-

हम इस सुंदर पंडाल में बिजली की रोशनी की चकाचौंध में बैठे हैं लेकिन हम नहीं जानते कि हम इस रोशनी को गरीबों की कीमत पर जला रहे है।

(हरिजन, ११-०५-१९३५)

गाँधी ने औद्योगीकरण द्वारा उत्पन्न बुराईयों के निदान की तुलना में उपचार को प्राथमिकता दी, जिसमें आर्थिक विकास गाँवों पर केन्द्रित होगा। उनकी अभिलाषा यह देखने की थी कि-

वह रक्त जो आज शहरों की धमनियों में प्रवाहित हो रहा है, वह एक बार फिर गाँवों की रक्त- शिराओं में प्रवाहित हो।

यहाँ आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण की विशिष्टता थी ताकि वे अपने खुद के मामलों पर नियंत्रण कर सकें। जब गाँधी पर बिजली सहित महान वैज्ञानिक अविष्कारों से पीछे लौटने का दोष लगाया गया तो उनकी टिप्पणी थी (शाब्दिक रूप से विकेन्द्रीकृत ऊर्जा व्यवस्था के सभी तत्वों को प्रेरित करने के लिए):

अगर हम प्रत्येक गाँव के घर में बिजली पहुँचा सकें तो मुझे ग्रामीणों द्वारा अपने कार्यों एवं यंत्रों को बिजली की सहायता से करने में कोई आपति नहीं होगी। लेकिन तब ग्रामीण समुदायों या राज्य का अपना बिजलीघर होग, जिस तरह वे अपना घास का चारागाह रखते हैं।

(हरिजन, २२-०६-१९३५)

१९३७ में वर्धा आने के बाद ग्रामपुनर्रचना के प्रति खुद को समर्पित करने के उद्देश्य से गाँधी ने अपने आदर्श भारतीय गाँव को इस तरह परिभाषित किया –

गाँव में पर्याप्त रोशनी एवं हवादार घर होंगें। इनको बनाने की सामग्री ५ मील के दायरे के भीतर से ही आएगी। घरों में आंगन होगा जिसमें परिवार के लोग घरेलू उपयोग के लिए सब्जियाँ एवं पशुओं के लिए चारा उगाएंगे। गाँव की नालियाँ व गलियाँ साफ सुथरी होगी। सभी लोगों की आवश्यकताओं एवं पहुँच के अनुकूल कुएं होगें। सभी के प्रवेश के लिए खुले पूजा स्थल होगें।, साथ ही एक सार्वजनिक स्थान होगा, जहाँ लोग आपस में मिल सकें, सहकारी डेयरी (दुग्धशाला) होगी, प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय होगें, जिसमें रोजगारोन्मुखी शिक्षा दी जाएगी, तथा विवाद निपटारे के लिए पंचायत होगी। यह गाँव अपनी आवश्यकता का अन्न, फल, सब्जियाँ, खुद उपजाएगा। यही मेरे आदर्श गाँव का चित्र है …..

(हरिजन, ०९-०१-१९३७)

इस चित्र में अनेक ऐसे तत्व है जो पर्यावरणवादी के यूटोपिया में बिल्कुल सही बैठते हैं। स्थानीय आत्मनिर्भरता, एक साफ़ व स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण, मानवीय जीवन के लिए अत्यावश्यक इन प्राकृतिक उपहारों का सामूहिक प्रबंधन एवं उपयोग, जल और चारागाह।

लेकिन गाँधी में अपने यूटोपियन सपनों को व्यवहार में कर दिखाने का गजब कौशल था। इस संबंध में मृदा उर्वरकता की महत्वपूर्ण समस्या के प्रति उनकी सजगता देखने योग्य है। उनके जीवन के अंतिम समय में, उन्होंने कृषि के तीव्र मशीनीकरण के प्रति आगाह किया था कि –

जल्दी लाभ पाने के लिए मृदा उर्वरकता में व्यापक भयानक व अदूरदर्शी नीति सिद्ध होगा। इसका परिणाम मृदा के सामान्य रिक्तिकरण के रूप में होगा।

(हरिजन, २५-०८-१९४६)

वह खाद के उत्साही समर्थक थे जो मृदा को समृद्ध करती है, कचरे के प्रभावी प्रबंधन के द्वारा गाँव के स्वास्थ्य में वृद्धि करती है, विदेशी विनिमय बचाती है तथा फसल उत्पादन को बढ़ाती है – यही सभी कुछ जो हम जानते हैं। यह सभी आधुनिक रासायनिक तकनीकों के कारण संसाधनों के होने वाले निकास तथा सहवर्ती प्रदूषण के बिना होता है। गाँधी  इंदौर में अपने प्लांट इण्डस्ट्रीज संस्थान में जैविक खेती के तरीकों का मार्ग प्रशस्त करने वाले एल्बर्ट हॉवर्ड के कार्य का हार्दिक सम्मान करते थे। अपने हरिजन में गाँधीजी ने अनुमोदन करते हुए विस्तार से हॉवर्ड और उनके सहयोगियों द्वारा विकसित किए गए तरीकों का वर्णन किया जिसमें गोबर, खेत का कचरा, लकड़ी की राख तथा मूत्र के मिश्रण को महत्वपूर्ण खाद में बदला जाता था। (हरिजन, १७-८ व २४-०८-१९३५)

अंत में, आधुनिक सभ्यता की गाँधी द्वारा दार्शनिक आलोचना हमारी जीवन शैली और आज के दूसरे पर्यावरण जुड़ाव के लिए गहन निहितार्थ रखती है। उनके लिए –

इधर आधुनिक सभ्यता का सबसे प्रधान लक्षण है मनुष्य का अपनी आवश्यकताओं को अंधाधुंध बढ़ाते जाना, तो प्राचीन पूर्वीय सभ्यता का मुख्य लक्षण है इन आवश्यकताओं या कामनाओं पर कठोर नियंत्रण लगाना और उनको सख्ती से मर्यादित करना।

(यंग इण्डिया, ०२-०६-१९२७)

अपने अंदाज के ठीक उल्टे कड़े शब्दों में कहा कि –

काल और देश की दूरी मिटा देने और पाशविक वृतियों को बढ़ाने और उनकी तृप्ति की खातिर ज़मीन आसमान के कुलाबे एक कर देने की इस विवेकहीन आकांक्षा को मैं पूरी तरह से नापसंद करता हूँ। आधुनिक सभ्यता यदि इन्हीं सब बातों के समर्थन को अपना लक्ष्य मानती है, और मैं तो समझता हूँ कि मानती है, तो मैं उसे हैवानियत कहता हूँ। (यंग इण्डिया, १७-०३-१९२७)

व्यक्तिगत स्तर पर गाँधी की स्वैच्छिक सादगी की आचार संहिता आधुनिक जीवन शैली का एक टिकाऊ विकल्प प्रस्तुत करती है। उनकी एक प्रसिद्ध सूक्ति यह है कि –

संसार में इतने संसाधन है कि वह प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता पूरी करने में समर्थ है किन्तु यह एक व्यक्ति के लालच के लिए भी पर्याप्त नहीं है।

वास्तव में यह गूढ़ पंक्ति पर्यावरणीय लोकाचार है। ऐसा लोकाचार जिसका प्रयोग उन्होंने खुद संसाधन पुनर्भरण तथा आवश्यकताओं के न्यूनीकरण के लिए किया। यह सभी उनकी जिंदगी से जुड़े हुए थे।

आर्थिक विकास की व्यापक प्रक्रिया के उनके विशेषण, ग्राम पुनर्रचना के उनके निर्देशन, जीवन के लिए उनके लोकाचार इन सभी स्तरों पर गाँधी का लेखन जब समकालीन संदर्भों में पुनः परिभाषित किया गया तो यह पर्यावरणीय संकटों की सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि प्रदान करता है। उनके जीवन काल में यह आर्थिक दर्शन उनके एक निकटस्थ शिष्य जे.सी. कुमारप्पा द्वारा विस्तृत एवं समृद्ध किया गया। कुमारप्पा प्रथम गाँधीवादी पर्यावरणवादी के रूप में विचारित कियए जाने का प्रबल दावा रखते हैं। हालाँकि आजकल उनके कार्य को व्यापक रूप से विस्मृत व उपेक्षित किया जा रहा है। अतः यहाँ पर एक संक्षिप्त मूल्यांकन करना अप्रासंगिक नहीं होगा।

कुमारप्पा तमिल ईसाई थे। लंदन से अकाउटेंसी पढ़ कर आए थे। बम्बई में ऑडिटर के रूप में उनकी प्रैक्टिस अच्छी खासी चल रही थी, जिसे उन्होंने न्यूयार्क में कोलम्बिया विश्वविद्यालय से स्नातकोतर उपाधि लेने के लिए अस्थायी रूप से छोड़ दिया। वह वहाँ सार्वजनिक वित्त के अध्ययन में लगे। उसमें उन्होनें भारतीय अर्थव्यवस्था के उपनिवेशी शोषण का व्यवस्थित रूप से पर्दाफाश किया। १९२९ में वह एक राष्ट्रवादी के रूप में भारत लौट आए। जल्द ही गाँधी के संपर्क में आए। सार्वजनिक वित पर उनका शोध यंग इंडिया में धारावाहिक रूप में छपा। कुमारप्पा ने स्वयं ही अपनी प्रैक्टिस को स्थगित किया ताकि साबरमती आश्रम से जुड़ सकें। वह गाँधी की ग्राम पुनर्रचना की योजना में लगाए गए तथा अगले दशक तक कृषि अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण सर्वेक्षण का संचालन किया। अखिल भारतीय चरखा संघ और अखिल भारतीय ग्रामोद्योग – इन दो प्रमुख गाँधीवादी संस्थाओं को चलाने में सहायता की।

१९३० व १९४० में लिखी पुस्तकों में कुमारप्पा ने गाँधीवादी अर्थशास्त्र को औपचारिक रूप देने की कोशिश की। गाँधी जैसे बुद्धिमान परामर्शदाता की तरह ही, कुमारप्पा के लेखन में भी गहन पारिस्थितिकीय संदर्भों के साथ सर्वेक्षण यहाँ वहाँ बिखरे हुए है। मसलन यह टिप्पणी पारिस्थितिकीय उतरदायित्व के लिए मूलमंत्र का कार्य करेगी –

हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय स्तर पर वस्तुएँ उत्पन्न करके करते ही हैं तो इस स्थिति में होते हैं कि उत्पादन के तरीकों का निरीक्षण कर सकें। इसी बीच अगर हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति धरती के दूसरे कोने से मंगा कर करें तो फिर उन जगहों पर हो रहे उत्पादन की परिस्थितियों, प्रक्रियाओं पर कुछ नहीं किया जा सकता।

अपने गुरू की भांति जे.सी.कुमारप्पा प्रबलता से औद्योगिक सभ्यता की निंदा करते हैं-

विनाश के बिना कहीं भी औद्योगीकरण संभव नहीं हो सकता है।

वे कहते हैं कि उस अवस्था में आजीविका हेतु कृषि सर्वश्रेष्ठ है और होनी चाहिए जिसमें पुरूष प्रकृति को तथा अने पर्यावरण को इस तरीके से नियंत्रित करने का प्रयास करता है ताकि बेहतर नतीजे प्राप्त हो सकें। यह ध्यान देने की बात है कि उन्होंने कृषि और उद्योग के मध्य इस विरोध को प्राकृतिक जगत पर उनके प्रभाव के संदर्भ में बताया है। वह इसे इस प्रकार बताते हैं –

कृषि अर्थव्यवस्था में व्यवस्था प्रकृति से विहित होती है। जिसमें असीमित रूप से हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। अगर इनमें विभिन्नता है तो यह प्राकृतिक उत्परिवर्तन का अनुसरण करता है। कृषक प्रकृति को सहयोग देता है या एक लंबी अवधि में होने वाली परिघटना को कम समय में होने का अवसर प्रदान करता है। आर्थिक व्यवस्था (औद्योगिक समाज) के भीतर हम पाते हैं कि प्रकृति द्वारा परिवर्तन हिंसक होते हैं, माँग का विचार किए बिना वस्तुओं की व्यापक पूर्ति उत्पन्न की जाती है तथा चतुर विज्ञापनों के साधनों द्वारा कृत्रिम रूप से वस्तुओं की मांग निर्मित की जाती है।

फिर भी अपनी पीढ़ी के अधिकांश गाँधीवादियों की भाँति कुमारप्पा सैद्धान्तिक चिंतन में प्रमुख रूप से रूचि नहीं लेते थे। उनकी रूचि भारतीय किसान और कारीगर की दुर्दशा को सुधारने में थी। कृषि अर्थव्यवस्था में प्राकृतिक संसाधनों की सजग व्यवस्था ही वह मुख्य प्रतिपाद्य विषय है जो उनके अधिकांश कार्यों में दिखाई देता है। इस प्रकार उन्होंने मल को खाद की भाँति उपयोग करने की आवश्यकता, जातिगत रूकावटों को जीतने के माध्यम के रूप में मानवीय मल तथा गाँव के कचरे को जैविक खाद में बदलने के लिए लोगों को व्यक्तिगत अनुदान देने पर बल दिया। इसी समय कुमारप्पा ने मृदा की गुणवता को मृदा क्षरण और जल स्तर की जाँच के माध्यम से बनाए रखने की महता पर बल दिया।

संभवतः जल और जंगल दो ऐसे संसाधन क्षेत्र हैं जिनके लिए वर्तमान वर्षों में भारतीय पर्यावरणीय आंदोलनों में सर्वाधिक प्रयास हुए हैं। इस संबंध में कुमारप्पा ब्रिटिश शासन के भीतर सिंचाई जलाशयों की दुर्व्यवस्था की आलोचना करने में कमजोर नहीं है साथ ही वह भूमिजल स्तर में वृद्धि के लिए जल संरक्षण तथा खारेपन को कम करने का तर्क भी देते हैं वन प्रबंधन के वास्तविक और पसंदीदा नमूनों पर सारगर्भित टिप्पणी में वह कहते हैं –

सरकार को अपनी वन प्रबंधन की नीति को आमूलचूल रूप से पुनर्विचारित करना होगा। वन प्रबंधन आज के उद्देश्य के द्वारा नहीं बल्कि लोगों की जरूरत के अनुसार निर्देशित होना चाहिए …….. वन योजनाएँ ग्रामीणों की आवश्यकताओं पर आधारित होनी ही चाहिए। वनों को दो मुख्य भागों में बांट देना चाहिए।

१. वे जो दीर्घकालीन सीमा को ध्यान में रखते हुए इमारती लकड़ी की पूर्ति करते हो।

२.वे जो घास और इर्ंधन की पूर्ति करते हो, इन्हें लोगों को मुफ्त या फिर नाममात्र की दरों पर उपलब्ध करवाना होगा।

गुड़, कागज़ निर्माण, कुम्हारी आदि ग्रामोद्योग तभी उन्नति कर सकते हैं जबकि घास और ईंधन उन्हें अत्यन्त सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाए जाए।

कुमारप्पा की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जैवमण्डल (बायोमॉस) की संभाव्य कमी पर टिप्पणियाँ दूरदर्शितापूर्ण हैं। वह विशेष रूप से चारे की उपलब्धता के बारे में दिलचस्पी लेते थे। उन्होंने इस ओर भी इशारा किया था कि जूट, तम्बाकू, गन्ने की नकद फसलें मनुष्यों एवं उनके घरेलू जानवरों के लिए खाद्य उपलब्धता में कमी लाती है। उन्होंने किसानों की पर्याप्त चरागाह भूमि नहीं होने की व्यापक समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया। कुमारप्पा उपनिवेशी सरकार से बिना भुगतान के पशुओं को चराने की अनुमति देने की हिचकिचाहट के बारे में बात करने को कहते हैं।

मृदापोषण तथा उर्वरकता, जल संरक्षण पुनर्भरण, ग्रामीण वन अधिकार, जैवमंडल यह ग्रामीण पर्यावरणीय समस्याओं का कार्यक्रम है जिससे आज भी हमारा गहरा संबंध है। कृषि को इसकी प्राकृतिक स्थितियों में दृढ़ता से स्थापित कर कुमारप्पा यह कह सकते हैं कि वह गाँधीवादी मार्ग पर एक पारिस्थितिकीय कार्यक्रम के निर्माण की शुरूआत कर चुके थे। यद्यपि आज के पर्यावरणवादी केवल वहीं से उस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं जहाँ कुमारप्पा ने उस कार्य को छोड़ा था।

महात्मा गाँधी की एक अन्य सहयोगी मीराबेन (मेडॅलीन स्लेड) पर्यावरणीय विचारकों अपने समय से काफी आगे थीं। वह अंग्रेज एडमिरल की पुत्री थी जो १९२५ में साबरमती आश्रम में आयी थी। जे.सी.कुमारप्पा की तरह मीराबेन भी गाँधी के घनिष्ठ लोगों के समूह का हिस्सा थीं। तमिल अर्थशास्त्री की तरह उन्होंने भी अनेक वर्ष ग्रामीण पुर्नरचना के  कार्य हेतु तथा अपने गुरू के निर्देशों को व्यवहार में लागू करने में बिताए। 1947 में हिमालय की पहाड़ियों में ऋषिकेश के नज़दीक एक आश्रम स्थापित किया। कुछ वर्षों के बाद वह अपना स्थान बदलकर  भीतरी पहाड़ियों में भीलंगना घाटी में चली गई थीं। मीराबेन ने उस समय लिखे एक लेख में हिमालय के वनक्षरण, मृदाक्षरण व बाढ़ों के बीच घनिष्ठ संबंध की ओर नीति निर्माताओं का ध्यान खींचा था। चिपको आंदोलन से सालों पहले ऐसी आलोचनाओं को व्यापक बल देने के लिये उन्होंने वन प्रबंधन में निम्न कमियाँ बतायी थीं –

पहली-ग्रामीणों की भागीदारी का अभाव

दूसरी-अनेक क्षेत्रों में चीड़ के वद्यक्षों के स्थान पर ओक के वद्यक्षों को लगाना-ओक ऐसी प्रजाति है जिसमें बरसात के पानी को धारण करने व सोखने की कम क्षमता है।

उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को चित्रों के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट भेजी। नेहरू ने उसे संबंधित वन अधिकारियों की ओर बढ़ा दिया लेकिन (जैसा कि मीराबेन ने कई वर्षों बाद नाराज़गी के साथ लिखा) – ‘वन विभाग के लिए काम संबंधी आवश्यक परिवर्तन बहुत आधारभूत थे।’

ग्रामीण उत्तर प्रदेश में अपने वर्षों में मीराबेन ने भारतीय कृषि की प्रमुख पारिस्थितिकीय समस्याओं पर कुछ उपयोगी टिप्पणियाँ की थी। यह समस्याएँ आज भी हमारे सामने मौजूद हैं। उन्होंने बताया कि नहर द्वारा सिंचाई की योजना में जल संचय अनिवार्य रूप से ज़रूरी है, धरती की जुताई पशुओं के चारे के लिए व मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए ज्यादा उपयुक्त है। मीराबेन के लिए पारिस्थितिकीय परिवर्तन और संकट की तीव्रता आज के आधुनिक जीवन की विशिष्ट पहचान थी। उत्तरी अमेरिका और मध्यपूर्व में प्राचीन सभ्यताएँ प्राकृतिक पर्यावरण के दुरूपयोग के कारण ढह चुकी थीं। उन्होंने ५ जून, १९५० के हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा था- ‘जो बात उन दिनों में हजारों सालों में होती है आज आधुनिक मशीनों व विज्ञान के युग में वह १०० सालों में हो जाती है।’

गाँधी और कुमारप्पा की तरह मीराबेन का प्राथमिक संबंध भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनः प्रतिष्ठित करना था। प्राकृतिक पर्यावरण में उनकी रूचि मात्र याँत्रिक नहीं थी। अनेक समयों पर उन्होंने वर्ड्सवर्थ की पक्की यूरोपियन रोमांसवादी परम्परा के साथ एक आध्यात्मिक बंधुता को भी अभिव्यक्त किया है। वह अपने आप को ‘आदियुगीन धरती माता की भक्तिन’ कहती थी। जैसा कि अप्रेल, १९४९ में उन्होंने लिखाः

आज सबसे बड़े दुःख की बात यह है कि शिक्षित और धनी वर्ग ने अस्तित्व के जीवनप्रद मूल तत्वों – हमारी धरती माँ, उसके द्वारा धारित प्राणी व अन्नजगत –  के साथ अपना नाता पूरी तरह तोड़ लिया है। प्रकृति की योजना का यह संसार मनुष्य द्वारा जब कभी भी अवसर मिलने पर बेरहमी से लुटा, छिना व छिन्न-भिन्न किया गया। विज्ञान व मशीन के द्वारा वह एक समय के लिए व्यापक लाभ प्राप्त कर सकेगा परंतु अंततः उदास ही होगा। अगर हमें शारीरिक रूप से स्वस्थ और नैतिक रूप से सभ्य प्रजाति के रूप में बने रहना है तो हमें प्रकृति के संतुलन का अध्यन करना होगा तथा इसके नियमो के मुताबिक अपनी जिंदगी विकसित करनी होगी।

मैंने अपनी बात भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन पर महात्मा गाँधी के स्पष्ट प्रभावों की पहचान व टिप्पणी के साथ शुरू की थी। तब मैंने अतीत में जा कर यह जाँचने का प्रयास किया कि किस सीमा तक गाँधी खुद वर्तमान की पारिस्थितिकीय समस्याओं का स्पष्ट पूर्वानुमान लगा चुके थे। इस संबंध में साक्ष्यों ने इस बात को मजबूती के साथ प्रस्तुत किया है कि गाँधी और जे.सी. कुमारप्पा तथा मीराबेन जैसे उनके अनुयायियों के विचारों ने भी पर्यावरणीय आंदोलन के लिए उत्कृष्ट लाभदायक अतीत निर्मित किया है।

अब समय है कि हम अपना ध्यान एक व्यापक, प्रचलित मिथक पर केन्द्रित करते है जिसका  स्त्रोत महात्मा गाँधी के पर्यावरणीय योगदानों की पुनर्प्रतिष्ठा में है। प्रमुखतः आंदोलन के रेडिकल पक्ष के बीच खास किसी व्यक्ति के साथ अच्छाई-बुराई तसदीक करने की खेदजनक प्रवृति प्रचलित है। रेडिकल पर्यावरणवादी के लिए गाँधी उसी अनुपात में अच्छे हैं जिस अनुपात में नेहरू बुरे हैं। गाँधी को सम्मान व अनुसरण करने के प्रतीक रूप में अपनाते समय एक साथ उनकी अच्छा जवाहर लाल नेहरू के प्रेतीकरण की होती है। जिसके ऊपर वह भारतीय समाज के पारिस्थितिकीय संकट के लिए दोषारोपण करते है। अनेक पर्यावरणवादी यहाँ तक विश्वास करते है कि गाँधी पारिस्थितिकीय रूप से सुदृढ़ विकास की रूपरेखा खुद ही बना चुके थे। यह गाँधीवादी विकल्प नेहरू द्वारा कचरे के ढ़ेर में डाल दिया गया। नेहरू ने तब स्वतंत्र भरत पर अपना खुद का पूँजीगहन, पर्यावरणीय रूप से विध्वसंक, आर्थिक विकास थोप दिया। इस बात पर प्रकाश डालने के लिए एक कहानी देश छोड़कर अभी ब्रिटेन में रह रहे भारतीय पर्यावरणवादी ने मुझे अभी हाल ही में बतायी थी। गाँधी नेहरू के साथ इलाहबाद में नेहरू के घर ठहरे हुए थे। गाँधी ने सुबह-हाथ मुँह धोने के लिए एक बाल्टी पानी के लिए कहा। नेहरू ने दो बाल्टियॉं भेजी जिस पर गाँधी ने एक वापस भेज दी।

जवाहर ने विरोध जताया, ‘क्यों गाँधीजी, यह वह शहर है जहाँ गंगा, यमुना का संगम होता है, यहाँ पानी की कमी नहीं हो सकती।‘

इस घटना का अभिप्राय गाँधी की दूरदर्शिता तथा उनके मेजबान के अपव्ययी तरीकों को बताना है। इन्हीं तरीकों ने १९४७ के बाद नए राष्ट्र द्वारा अपनाए गए विध्वंसक विकास के रास्ते में सुदृढ़ अभिव्यक्ति प्राप्त करने का विश्वास हासिल कर लिया था। कहानी का कोई स्त्रोत नहीं दिया गया है। लगभग निश्चित रूप से यह पर्यावरणवादी की मनगढ़त बात है। आज भी गाँधीवादी पर्यावरणवादियों ने इस कहानी में व्याप्त विश्वास को व्यापक रूप से अपना रखा है। इस बात को बताने के लिए मैं कई उदाहरणों  में से एक को चुन कर आपको बताता हॅूं। कुछ वर्षों पहले प्रकाशित एक निबंध में एक प्रमुख भारतीय पर्यावरणीय लेखक एवं कार्यकर्ता ने दावा किया कि ‘महात्मा गाँधी द्वारा जवाहरलाल नेहरू को भारत को अतिउपयोग के रास्ते की ओर न ले जाने के बारे में समझाने-बुझाने के सारे प्रयास व्यर्थ हुए।’

संक्षिप्त रूप में यह कथन मिथक के दो प्रमुख तत्वों को बताता है-

पहला – पर्यावरणीय दृष्टिकोण से कहा जाए तो नेहरू अपव्वयी और गाँधी दूरदर्शी थे।

दूसरा – गाँधी के पास भारत के लिए विकास का अपना वैकल्पिक प्रारूप था जिसे नेहरू ने अपने दर्प में बिना विचारे अस्वीकृत कर दिया।

अतः बात यह है कि आज के पर्यावरणीय वाद-विवाद गाँधी और नेहरू के मरणोपरांत उन्हें उग्र जन प्रतिस्पर्धा में ला चुके हैं जो भावनात्मक रूप से हिंसक हैं तथा इन दोनों के बीच विद्यमान घनिष्ठ संबंधों को नजरअंदाज करता है।

गाँधी का नेहरू से पर्यावरणवादी विरोध अंशतः एक स्वयंसिद्ध पहेली को समझने की आवश्यकता से उत्पन्न हुआ है कि स्वतंत्र भारत का विकास अनुभव पारिस्थितिकीय सरोकारों के प्रति गंभीर संवेदनशून्यता को प्रकट कर चुका है । हम जो कुछ अभी तक प्रमुख रूप से बता चुके है, इसके बावजूद ‘राष्ट्रपिता’ प्रबल रूप से ‘प्रारंभिक पर्यावरणवादी’ थे। दूरदर्शी गाँधी को अभिजात नेहरू के साथ विरोध में खड़ा करके इस पहेली को सरलता से बताया जा सकता है तथा एक षडयंत्र सिद्धांत को पेश करके भी, जिसमें नेहरू तख्तापलट के रूप में पहले कांग्रेस को अपने अधीन लेते है तथा बाद में तेजी से कांग्रेस को गाँधीवादी विरासत से छुटकारा दिला देते है।

यह पहेली अस्तित्व में है, इस पर मेरा विवाद नहीं है। लेकिन जिस तरह और जिस रूप में यह पर्यावरणीय आंदोलन में मेरे मित्रों द्वारा प्रायः व्याख्यायित की जाती है, मैं इसकी जाँच करना चाहता हूँ और यहाँ तक की शायद चुनौती भी देना चाहता हॅूं। गाँधी व नेहरू की उनकी श्वेत-श्याम छवियों को चुनौती देने का मतलब इन दोनों व्यक्तियों की गंभीर दार्शनिक विभिन्नताओं की अवहेलना करना नहीं है। स्वतंत्र भारत का गाँधीवादी दृष्टिकोण ग्रामीण पुनरूद्धार पर केन्द्रित था जबकि उसी दृढ़ता से नेहरू का दृष्टिकोण तीव्र औद्योगिक विकास पर केन्द्रित थ। गाँधी ने परिवर्तन की तुलना में स्थिरता को प्राथमिकता दी लेकिन अधीर नेहरू ने स्थिरता की तुलना में परिवर्तन को प्राथमिकता दी। इन दोनों के बीच यह मतभेद अक्टूबर, १९४५ में एक दूसरे को लिखे पत्रों में साफ तौर पर उभर कर सामने आते है। स्वतंत्रता पश्चात् सामाजिक व आर्थिक उद्देश्यों पर कार्यसमिति की सभा के बाद गाँधी ने नेहरू को अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा कि-

भारत ग्रामीण जीवन की सरलता में ही सत्य और अहिंसा को अनुभव कर पायेगा।

उन्होंने औद्योगिक समाज की तुलना पतंगे से की जो रोशनी के इर्द-गिर्द तेजी से घूमता है और खुद को समाप्त कर देता है। इसके जवाब में नेहरू ने इस बात का प्रतिवाद किया कि गाँव सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों को मूर्त रूप दे सकेगें। नेहरू के लिए गाँव बौद्धिक एवं सांस्कृतिक दोनों रूपों से पिछड़ी स्थिति थे। आर्थिक नियोजन के मुख्य उद्देश्य के रूप में नेहरू ने ‘अतिउपभोग’ (जैसाकि पर्यावरणवादी जताना चाहते है) को नहीं बल्कि ‘हर भारतीय के लिए भोजन, कपड़े, आवास, षिक्ष, स्वास्थ्य की समुचित पर्याप्तता’ को निर्धारित किया। इस उद्देश्य को लेकर दोनों में सहमति थी मगर नेहरू अपने समय के अन्य बौद्धिकों की तरह इस बात के कायल थे कि इस तथ्य को केवल तीव्र औद्योगीकरण एवं आधुनिक तकनीक के उपयोग से प्राप्त किया जा सकता है।

इन मत विभिन्नताओं के साथ-साथ हमें गाँधी व नेहरू के बीच गहरे व चिर स्थायी स्नेह को ध्यान में रखना ही होगा। गाँधी ने जुलाई, १९३६ में लिखाः

मैं खुद को नेहरू के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में नहीं देख सकता और न ही नेहरू को मेरे।

आगे वह लिखते है किः

और न ही हम हैं। एक सामान्य लक्ष्य की तलाश में एक दूसरे का स्नेह जीतने में प्रतिद्वन्द्वी हैं और यदि उद्देश्य तक पहुँचने के संयुक्त कार्य में हम एक समय अलग-अलग रास्ते अपनाते हुए प्रतीत होते है तो मुझे आशा है कि दुनिया यह पाएगी कि हम एक क्षण के लिए लेकिन बेहतर पारस्परिक आकर्षण व स्नेह से पुनः मिलने के लिए एक दूसरे की दृष्टि से ओझल हो गए।

मैं नहीं जानता कि पर्यावरणवादी इस बात का तालमेल गाँधी-नेहरू ध्रुवता के साथ कैसे बिठायेंगे? जिसे वे इतनी गर्मजोशी के साथ थामे हुए थे। वास्तव में पर्यावरणवादी १९३० के शुरू में महात्मा गाँधी की नेहरू को उनके उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकारने की सार्वजनिक घोषणा की उपेक्षा कैसे कर सकते है; एक उत्तराधिकार जिसकी पुष्टि गाँधी बाद के वर्षों में बार-बार करते है। वास्तविकता यह है कि स्वतंत्रता से पहले के महत्वपूर्ण वर्षों की पर्यावरणवादियों की व्याख्या इस बात को समझने में असफल रही है कि १९४० और उसके आसपास गाँधी के आर्थिक विचारों को राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा निश्चित रूप से अस्वीकृत किया जा चुका था। उस समय राजनीतिज्ञों एवं बौद्धिकों के बीच यह जबर्दस्त चेतना व्याप्त थी कि स्वतंत्र भारत में तीव्र औद्योगीकरण ही उचित आर्थिक रणनीति थी। इस रणनीति के समर्थकों का विश्वास था कि यह आगे चल कर गरीबी और बेरोजगारी को घटाएगी तथा एक मजबूत, आत्मनिर्भर एवं वास्तविक स्वतंत्र समाज बनाएगी। नेहरू ने इस चेतना को कुशल रीति से, विस्तार से अभिव्यक्त किया लेकिन नेहरू के पीछे गहरे राष्ट्रवादी लोगों एवं सच्चे वक्ताओं का एक संगठित दल था।

असल में, अगर १९४७ की आर्थिक नीति के आधार के रूप में गाँधीवादी प्रतिरूप वास्तव में अपना लिया गया होता तो देश के मजबूत और बहुसंख्यक लोगों के मत के सामने एक अलोकतांत्रिक स्थिति होती। ‘गाँधीवादी विकल्प’ का वास्तविक हाशियाकरण (marginalization) जैसा कि वास्तव में था, जे.सी. कुमारप्पा के कार्यकाल में ही स्पष्ट हो चुका था। १९३७ में वह कांग्रेस की राष्ट्रीय योजना समिति के लिए अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किए गए लेकिन जब राष्ट्रीय योजना समिति के सदस्य साथियों ने योजना के केन्द्र में गाँव को रखना अस्वीकार किया तो इन्होंने इस्तीफा दे दिया। आज़ादी के बाद सर्व सेवासंघ द्वारा कुमारप्पा योजना आयोग की सलाहकार सभा में प्रतिनिधित्व करने हेतु नियुक्त किए गए। पुनः गाँधीवादी अर्थशास्त्री ने जल्द ही यह ताड़ लिया कि वह अल्पसंख्यकों में से एक है और समिति को छोड दिया। हमारे लाभ की दृष्टि से पर्यावरणवाद के समय से पहले महात्मा और उसके शिष्यों को पर्यावरणवादियों की तरह प्रसिद्ध करना संभव है। इसके विपरीत, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री राष्ट्रीय आंदोलन के बहुसंख्यक बौद्धिक मत का प्रतिनिधित्व करते थे जिसकी सोच थी कि भारत का पुनर्जीवनीकरण व्यापक औद्योगिक द्वारा ही हो सकता है। कोई भी गाँधी और कुमारप्पा के अपने समय से आगे होने या कहना चाहिए दूरदर्शी होने पर गर्व कर सकता है लेकिन नेहरू के समकालीन होने की निंदा करना पूर्णतया अ-ऐतिहासिक साथ  ही साथ अनुचित भी होगा।

महान ब्रिटिशसमाजवादी एडवर्ड कारपेंटर ने एक बार टिप्पणी की थी कि एक युग के निर्वासित दूसरे युग के नायक हैं। शायद यह बात कि एक युग के नायक दूसरे युग के निर्वासित होते है, उतनी ही सत्य है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवनकाल में इतना पसंद नहीं किया गया जितना कि जवाहरलाल नेहरू; साथ ही कोई भी व्यक्ति उसकी मृत्यु के बाद इतना कुप्रचारित नहीं हुआ जितने कि नेहरू। यह प्रतीत होता है कि आज भारत की जो भी समस्याएं है उसके लिए नेहरू उत्तरदायी है। जहाँ दक्षिणपंथी नेहरू की छद्य धर्मनिरपेक्षता तथ राज्य नियोजन की नीतियों को पकड़े हुए हैं जो कि साम्प्रदायिक निष्कर्षों एवं आर्थिक स्थरीकरण के लिए स्पष्टतया उत्तरदायी है। वहीं वामपंथी निष्क्रिय होकर इस व्यक्ति के छद्म समाजवाद और पारिस्थितिकीय अहंकार के क्रिया-व्यवहारों में आर्थिक असमानता और पर्यावरणीय अवनति के अवशेष खोज रहे हैं।

पर्यावरणीय आंदोलन के बाहर और भीतर नेहरू का प्रेतीकरण इस संभावना को कोई जगह नहीं देता कि समय के अनुसार व्यक्ति और विचार भी बदलते है। उदाहरण के लिए सरदार सरोवर परियोजना के विवाद को लेते है, जिसे पर्यावरणवादी नेहरू-गाँधी विरोध के संदर्भ में प्रस्तुत करने में सरलता अनुभव करते है। परियोजना की एक आलोचना अभी हाल ही में एक पुराने ऐतिहासिक मंदिर के बांध के बढ़ते पानी की वजह से डूबने के कारण लिखी गयी जिसमें लेखक द्वारा उसे ‘जवाहरलाल नेहरू के आधुनिक भारत के मंदिर’ की तरह बताया गया है। यहाँ ३० साल पहले गुजरे हुए इंसान को आज बांध के निर्माण के लिए दोषी ठहराया जा रहा है केवल एक सूक्ति के आधार पर जो स्वतंत्रता के शुरूआती वर्षों में एक अन्य बांध बनने को वर्णित करने हेतु उसने प्रयुक्त की। लेकिन कोई भी कैसे विश्वास कर सकता है कि नेहरू जैसा उदार एवं खुले विचारों का आदमी अपने विरोध में सबूतों के भंडार के बावजूद एक दृष्टि पर इतना दृढ़ रहा होगा? मुझे थोड़ा संदेह है कि अगर गाँधी और नेहरू आज जिंदा होते तो सरदार सरोवर विवाद पर वे अपने आपको एक पक्ष में पाते।

नेहरू के प्रेतीकरण का आग्रह अमेरिका और इतिहास की भारतीय दृष्टि से आता है जिसमें विशेषतः विश्व निष्क्रिय रूप से अच्छे और बुरे लोगों में बँटा रहता है। ये श्वेत-श्याम चित्र विशेषतः सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुकूल हैं –  एक समय यह मार्क्सवादियों का लक्षण था तथा अब यह खेदपूर्वक रेडिकल पर्यावरणवादियों के लक्षणों के रूप में प्रतीत होते है। व्यक्तियों के विचारों और कार्यों को संदर्भों में देखना चाहिए, यह इतिहासकार का काम है। ऐसा करते हुए वह अपने आप को कम या ज्यादा अंशों में कार्यकर्ता के विश्वास का परीक्षण करता हुआ पाता है। यह इस भावना में है कि मैं पर्यावरणवादियों की नेहरू की कृष्ण छवि का विरोध कर चुका हूँ और साथ ही इसी जोश के साथ गाँधी को पाक साफ़ बता देना, इन दोनों का मैं विरोध करता हूँ। जैसा मैंने कहा है कि गाँधी की जो ऐतिहासिक छवि है वह विचारों का एक पुँज है और अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति विद्रोह तो है ही साथ ही पर्यावरणवादी दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। बहुत कुछ अविवादित है लेकिन शायद यह पूछने का समय है किः

‘क्या ऐसे तरीके हैं जिससे गाँधी की विरासत आंदोलन को वास्तव में सीमित कर सकती है? या ज्यादा स्पष्ट रूप से रखा जाए तो क्या गाँधी आज के सामाजिक व पर्यावरणीय पुनरूद्धार में लगे लोगों के सभी प्रश्नों के उत्तर दे सकते है?’

कुछ पर्यावरणवादी सुनिश्चित हैं कि – हाँ, वह दे सकते हैं। वास्तव में एक मित्र ने हाल में ही एक दावा किया कि ‘हर पर्यावरणीय घटना/संकट/चुनौती के लिए कोई भी गाँधी में दिशा निर्देष एवं प्रेरणा ढूँढ सकता है।’ इस सर्वाधिक प्रबल कथन के होते हुए भी मैं सोचता हॅूं कि गाँधी सभी उत्तर उपलब्ध नहीं करा सकते, कुछ समय तो वह सही प्रश्न भी नहीं पूछते ।

मुझे स्पष्ट करने दें। मैं विश्वास करता हूँ कि महात्मा गाँधी की घरोहर पर्यावरणीय आंदोलन की दृष्टि से दो महत्वपूर्ण पहलुओं को सीमित कर चुकी है-

पहला- अधिकांश पर्यावरणवादियों का गाँवों पर अत्यधिक ध्यान केन्द्रित करना गौरतलब है। गाँधी की भाँति उनके आज के अनुयायी शहरी संदर्भ और उसकी विशिष्ट सामाजिक व पर्यावरणीय समस्याओं के बारे में अल्प समझ रखते हुए प्रतीत होते है। भारतीय पर्यावरणवादी शहरी औद्योगिक जीवन शैली की अपनी क्रोधपूर्ण भर्त्सना करने मे इस तथ्य को जान चुके है कि इस सदी के अंत तक भारत में विश्व की सर्वाधिक शहरी जनसंख्या होगी। परिसर जैसे समूह हमें इन प्रश्नों के बारे में सचेत करने में बहुत कुछ कर चुके हैं। इस शहर में बोलते हुए मैं इस तीव्र और अनियंत्रित शहरीकरण के साथ जुड़ी पारिस्थितिकीय समस्याओं को ज्यादा खोलकर प्रस्तुत नहीं करूंगा-

व्यापक प्रदूषण, अधिक भीड़-भाड़ तथा इससे जुड़ी बीमारियाँ, शुद्ध पेयजल संकट, अपर्याप्त आवास एवं स्वास्थ्य सुरक्षा तथा ऊर्जा संरक्षण एवं पर्यावरणीय दृष्टिकोण से पूरी तरह अकुशल एक परिवहन व्यवस्था।

पर्यावरणवादी इन समस्याओं के साथ सक्रिय रूप से जुड़े रहने और हमारे शहरों और कस्बों को रहने लायक बनाने के प्रयास में गाँधी से सहायता प्राप्त नहीं कर सकते है। जिन्होंने अपने जीवन एवं कार्य में शहरों से साधारणतया अपना मुँह मोड़ लिया।

शहरों की तरह वनक्षेत्र भी गाँधी के लिए आकर्षक नहीं है। गत वर्ष परिसर व्याख्यान में बिट्ट सहगल ने अपने अनुभव से यह स्पष्ट किया कि कुछ पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं के पास प्रकृति संरक्षण का समय नहीं है। उन्होंने इसे अभिजात्य सनक का नाम दे रखा है। गाँधी किसी भी हाल में इसके प्रति उदासीन थे। यह सत्य है कि शाकाहारवाद का उनका प्रयास और अहिंसक गाँधी सभी के जीवन के प्रति सम्मान रखते थे। फिर भी सभी तरह से वह अविकृत प्रकृति की छटा को देखने शायद ही कभी गए हो। हो सकता है कि शायद यह उनके संयमित व्यावहारिक मिज़ाज का हिस्सा है जिसके कारण गाँधी में कोई रूमानियत नहीं थी। यह भी रोचक है कि दोनों व्यक्तियों में से नेहरू ज्यादा रूमानी थे तथ भारतीय प्राकृतिक सुंदरता के गहरे प्रशंसक थे। नेहरू की अंतिम इच्छा एवं वसीयत में उनकी भारत की मिट्टी, पहाड़ों और नदियों के प्रति उनकी प्रार्थना में एक रहस्यात्मक विशेषता निकट प्रतीत होती है।

गाँधी और नेहरू-दोनों के निकट मित्र ब्रिटिश शिक्षाविद् एवं लेखक एडवर्ड थाम्पसन ने इस वैषम्य को दिखाने के लिए एक किस्सा बताया। १९३७ में ब्रिटिष सरकार के विभिन्न प्रदेशों में जब कांग्रेस मंत्रिमंडलों को बनाया गया तब थाम्पसन ने राष्ट्रवादी नेताओं को भारत के लगातार लुप्त हो रहे जानवरों के प्रति रूचि दिखाने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने बताया ‘जानवर लगातार या तो लुप्त हो रहे थे या खतरे की सूची में थे’। जब उन्होंने इस समस्या को गाँधी के सामने रखा तो महात्मा ने मज़ाकिया लहज़े में कहाः

हमारे पास हमेशा ब्रिटिश शेर रहेंगे।

उसके बाद थाम्पसन की उदासी को महसूस करते हुए गाँधीजी ने उन्हें जवाहरलाल से इस बारे में कहने के लिए कहा,’ एक वे हैं जो इसमें रूचि दिखायेगें।’ वास्तव में नेहरू ने ऐसा ही किया, उन्होंने कांग्रेसशासित प्रदेशों के प्रधानमंत्रियों (जैसा उस समय इन्हें पुकारा जाता था) से इस मुद्दे के बारे में अपनी बात रखी। बाद में नेहरू थोड़े गर्व के साथ थाम्पसन को सूचित करने में समर्थ हुए कि मद्रास के प्रधानमंत्री के नाते सी. राजगोपालाचारी का अंतिम अधिनियम पेरियार प्रकृति संरक्षण को स्थापित करने वाला था।

इसलिए प्रकृतिप्रेमी और वे लोग जो शहरी पर्यावरण पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते है महात्मा गाँधी से कुछ हद तक ही सीधी मदद की गुंजाइश कर सकते है। लेकिन वन क्षेत्र और शहरों के मध्य एक व्यापक भू-भाग ७,००,००० गाँवों का घर है, जिसके बारे में गाँधी प्रायः और भावपूर्ण तरीके से बोलते थे। पर्यावरणीय रूप से विध्वंसक प्रोजेक्ट के विरोध में या कृषि अर्थव्यवस्था तथा इसके प्राकृतिक पर्यावरण के बीच संबंधों की पुनर्प्रतिष्ठा करने में गाँधी के जीवन और संदेश के प्रत्यक्ष क्रियान्वयन की गुंजाइश ज़्यादा है। चाहे शहर में, देश में या वन में रहें हम भी बिना अपवाद के प्रयास कर सकते हैं और अपनी जीवन शैली को व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुरूप संभव्य सीमा तक सादगीपूर्ण बना सकते हैं। साथ ही उस व्यक्ति से सीख सकते हैं जिसने अपनी जिदंगी धरती पर अपनी कुछ आवश्यकताओं के साथ गुज़ारी तथा अपने लिए कुछ ही आवश्यकताएँ रखी। यह भी सीख सकते हैं कि पर्यावरणीय आंदोलन हमेशा महात्मा गाँधी की ओर लौटता है और ठीक उसी समय उनसे आगे भी जाता है।

(अंग्रेज़ी से अनुवादः शम्भू जोशी)

http://pratilipi.in/2009/07/gandhi-and-environmentalism-ramachandra-guha